ग़जब का संस्कार, ये धरा के फूल रखते हैं!
मस्त मौजें-नशा की डुबकी लगाते रहते हैं!
खबर खुद की न होश, हाले-हवा की लेते हैं!
जब चाहा, बाहें पसार पंखुडिया बिखेरते हैं!
सुख का दुःख का, इनको कभी शिकायत नहीं,
बसंत या ग्रीश्म की बेमुरव्वत बेरुखी हवा भी,
जज्बात रहते, मधुर, नित स्थिर, श्रावणी से ही
अल्हड़ से मुस्कुराते मिल जाते हैं बंजर मे भी!
देख इन्हें, जलने लगता है सूशुप्त मन भी!
कहो क्यों, सर्वश्रेष्ठ देव-कृपा-पात्र मनुज ही?
तृषित, तडित, काम-मद-लोभ अविवेक रंजित
संचित सुख मुट्ठी बंद, लेता श्वास अतृप्त ही!