“अरे तुम यहाँ खड़े, किस को तक रहे हो?”
चौक गई मैं देख, सड़क किनारे हंसते उसको
आसमां मे सूर्य चढा था, लेकर अपनी गर्मी को
नीचे नीलाम्बर समेटे, देख रहा था वह मुझको।
“मैं तो तुमक़ो भाता था,क्यों भूल गई हमको?
टूटी दिवाल के कोने से, उखाड़ लाई प्रातः को।
दर्द हुआ बहुत फिर भी घर बनाया था गमले को,
स्नेहवश अपनाया था फिर क्यों भुलाया मुझको?”
बांवरा, वह शरमाया, तकता रहा बांह पसारे,
मैं भी बस खोई खोई, रही पलकती उसको।
मन मे यादों को भर, तेज किया कदमों को,
“राह नई, निकल पडी हूँ, याद न कुछ दुहराओ!”
जाने क्या उसने पहचाना, जाने क्या समझा!
दूर छूट गया था वह, मुडकर जब देखा उसको
स्वीकृत नियति को कर, नमन किया ईशवर को!