खुशी से भेट

प्रश्न बहुत सारे, मैं हूँ उससे करना चाहती,

बस फुरसत से खुशी ,जो कुछ देर मिल जाती।

आंसरा, देखती रहती हैं दो आँखे चारो पहर,

पर ठहरती, वो मेरे लिए है बस एक ही पल।

हौसला देती रहती,मीठे सपने है अनेक दिखाती,

अभी आई नही कि अभी बेचैन हो निकल जाती।

एक मैं ही नही,रास्ता उसका हूँ ताकती रहती,

रौशनी को उसके,हर आंख है पग में बिछी रहती।

“ओ खुशी,क्यों हो तुम, चपल -द्रुतगामी इतनी

उम्र बस,ग्रीष्म की बहती पुरवाई बयार जितनी?”

लगा फुसफुसाकर, कानो में कहा कुछ उसने,

“देखती नही,आस पर मेरे ,बैठे हैं पथिक कितने!

नींद तोड़ कर,खुली आँखों से देखते है वे सपने!

इस संसार में नजर आते हैं ,सभी मीत मेरे अपने!

गुजरती हूँ, जब भी गांवों, मोहल्लों और गलियों से,

शहर की तरह,नजर आतें है उतावले, सभी बच्चों से!

संजोये सबकेआस का अभिनंदन ,मेरा ही तो काम है!

कहो तुम्ही,उन अपनों को, छोड़ने में मेरा क्या नाम है?”

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