अपनो के शब्दों की चूक कटुता ,
मन मूक क्यूँआहत होजाता हैं,
अश्रुधार है बिजली सी चमकती
हृदय आघातों से भर जाता है।
पूछता,क्या यही संबंधों की गरिमा है,
स्वार्थ ही एक भाव भरा होता है?
पैसे के बाट तराजू रख,वह मनुज
सिक्कों से ही रिश्ता तोला करता है!
ये नीति नही रुचती है, ये भाव नही जंचता है!
बाढ़ प्रश्न के आते है,स्वाभिमान घायल होता है
माफ़ करू या उत्तर दूँ ,यही सोंचती रहती हूं,
नीड तले ,बाण-बिन्धी चिड़िया सी आह भरती हूँ।
ध्यान अचानक आया, ये चलन कोई नई तो नही
जब चाहते तुम पुकार देते ,मैं दौड़ी चली जाती हूँ
रुचता है तो चुप रहते वरना बात टूक सुना देते वही
कटु होते है बोल, फिरभी,अग्रज हूँ ,झुक जाती हूँ!