स्थिर चेतना

अच्छादित  यह आकाश बरसता मुझसे  कह रहा
बहने दो थारा जीवन की जिस दिशा यह  बह रहा

विधि का विधान बना, सबको  एक दिन पिघलना
पंचतत्व की इस रचना को रंगहीन मिट्टी में  मिलना

  अंतरमन की पूंजी हो हो या  बहिर मन की हो भावना
दान करो स्वेच्छा से सब, लेकर ना कुछ किसी को जाना

   बादलो का ठोर यही यह काल इन्हें यही बिताना
लक्ष्मी विष्णु बने युगल स्वीकारें  विधि लेख,  बिछूट ना

शीतल बना शक्तिपुंज आज,देखो छुपा पीछे उन बूंदो के
ताल तलैया ताप  से जिसके वाष्पित होते थे कुछ क्षण में

कहो इसे कर्मों का विधान  है पुरुष प्रकृति लीला चक्र
सुरिजीत वृक्ष बीच में परिणित हो करता पूर्ण चक्र

ध्यान धरो तो है सब कुछ  वरना है कुछ भी नहीं
सुख दुख खुशी इस नियति की है मनोरंजन विधि

समय   सरीखे बन जाओ मूक  बनो तुम कर्मठ दृष्टा
रहो समर्पित अंतरात्मा के प्रति, करो न कोई  अन्य चेष्टा

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *