समय की नीली शाम आ गंई यू अचानक
बढते कदमो की मेरी स्फूर्ति गई थक।
समझ रही थी मै, नई विपदा यह आन पडी
लेकर दुखती काठी , संकल्पिअविलम्ब चल पडी।
वह खडी ,बाह पसार ,विस्तृत आकाश जितना?
आश्चर्य प्रेम अथक प्रगट करेगा कोई इतना?
ईश भरोसे आगई तुम्हारे चौखट पर,”अनु-
पाई!”
सोचा न था पाऊँगी इतनी स्नेही करूणाई।”
किया न था कभी सेवा किसी की मैने इतना ,
न कर्मो मे था अरजा हुआ पुण्य ही उतना।
भर गया मेरा मन भावो की बिडम्बना से,
लगी दर्द मे भी परम पिता की कृपा ढूढने।
एक धारा काली बहती कष्टकारिणी थी
साथ उसके सद्भावना भी चमक रही थी।
पूछा उस जादूगर से,”कैसा यह खिलवाड?”
सजा कर्म,यह दर्द देकर बंद किया किवाड?
है असीम कृपा फिर भी प्रगट किया एक परी,
प्रेम भरी यह मृदुभाषी हर पल करती सेवा मेरी।
शायद मेरे “जादूगर “,नया रूप बना तुम आये हो
अथवा संदेशवाहक अपना,पास मेरे भेज दिए हो!”
शमा सिंहा
7-1-’21