आपके साथ आज मै अपने उन मनुभावों को साझा करना चाहती हूं, जिसने बहुत समय से मेरे अन्तर मन मे हलचल मचा रखी है।शायद इसीलिए कि कालांतर से मै अपने ही विश्लेषण मे भ्रमित सा महसूस कर रही हूं।आजअपनी अनुभूति को आपके समक्ष रखते हुए कुछ संकोच जरूर हो रहा किन्तु अभिव्यक्ति के बिना अपनी दुविधा को मै सुलझा नही सकती।
बचपन मे सिखाए गए नित्य संस्कार मे, मंदिर मे सीताराम की युगल मूर्ति के समक्ष जब भी मै सिर झुकाती,तब मेरा मन अनेक प्रश्न से घिर जाता।एक ओर श्रीकृष्ण की मनोहारिन मूर्ती सारे जगत को भावपूर्ण समृद्धी से आह्लादित करती है।विश्व कोअपने नारायण स्वरूप का दर्शन कराया ।ऋषियों की जन्म जन्मांतर की प्यास उन्हे रासलीला मे सम्मिलित कर शान्त किया।वही श्रीराम-सीता ने सम्पूर्ण मानव जाति कोआदर्ष जीवन, जीने की शैली से परिचित कराया ।साधारण मनुष्यके रूप मे , सर्वसाधारण समाज में आदर्श चरित्र की स्थापना की जो चमत्कारिक नही अपितु पुरूषार्थ के धरातल पर अधारित था।एक पत्नीव्रत श्रीराम के साथ सीता का सिंहासन पर बराबर मे बैठना,मनुष्य समाज को पारिवारिक आदर्श दिया।भारतीय संस्कृति को श्रीसीता राम के सम्बन्ध से सामाजिक जीवन को मजबूत मनोवैज्ञानिक मिला।
इतना सब होते हुये भी,उस समय का सामाजिक परिवेश मुझे प्रश्न न करने देते ।समय बीता ,मेरी स्वयं की, विश्लेषणात्मक प्रकृति ने तब के सामाजिक परितेइन सब के बावजूद, मु
कम शब्द मे कहूं तो,पहला प्रश्न ,राम और सीता के अनन्य प्रेम -कथा के अवलोकन पर और दूसरा सीताराम के दो बार के विछोह पर आश्रित है।
कृष्ण को एकल भी मंदिर मे विराजते देखा पर राम सदा युगल रूप मे ही रहते।कारण जानने की उत्कंठा मुझे कुछ पलो के लिए ही सही, पर व्याकुल कर देती।
“रामायण और श्रीराम चरित्र मानस “वैसे तो श्रीराम को ज्यादाअपनापन और महत्ता देते हैं किन्तु मेरी नजर में ऐसा कदापि नही। क्या सीता की अनुपस्थिति मे श्रीराम का पुरूषार्थ उजागर हो पाता? शायद हम से ज्यादा इस तथ्य को श्री राम ने अनुभव किया और उन्हे अपने सिंघासन का सहभागी बना कर सिद्ध कर दिया है!
रामचरित्रमानस और रामायण,दोनो ही बराबर से सीता और राम , दोनों का हीअवलम्बित चरित्र और गूढ अवलंबित प्रेमपूरिता परिभाषित करते है। राम जन्म की कथा जितनी पारलौकिक , मनोहारिनी और” दैहिक दैहिक भौतिक ताप” से उबारने वाली है,उतना ही पुण्य और आश्चर्य से भरा सीता माता का विलक्षण स्वरूप है।
पुष्प वाटिका मे मधुर नेत्र मिलन और दोनों के प्रथम प्रेम-अनुराग का आदान प्रदान हुआ। बगीचे की पुष्पलताए इस तथ्य की साक्षी हैं कि दोनो ही पक्ष की व्यग्रता समान थी। विष्णु-लक्ष्मी स्वरूप वर कन्या, स्वयंवर मे खडे ,श्री राम और सीता एकसमान संकोच से भरे है।इसे संयोग कहे या विधी का विधान।
श्री राम जन्म, राजा दशरथ के संकल्पित, श्रींगी ॠषि द्वारा सम्पन्न पुत्रेष्ठित यज्ञ का फल है, तो वहीं माता सीता भी विदेह राजर्षि जनक के भूमि यज्ञ का फल हैं।
श्री राम ने ब्रम्हर्षि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की तो माता सीता ने शिव के असाधारण धनुष की अविश्वसनीय विधीऔर विधान से सेवा की। पूजा-पाठ की व्यवस्था करते समय,जिस शिव धनुष को वीरों में वीर, स्वयंवर मे विराजते राजा का समूह न उठा सका, उसे सफाई करते समय सहजता से बाये हाथ से उठा कर इधर से उधर करना ,असाधारण शक्ति का ही परिचायक ही नही अपितु माता सीता के दैविक मनोबल का उदाहरण भी है। अतः सीता-राम, अलग नही बल्की शिव शक्ति की तरह मानव रूप मे दो शरीर और एक मन हैं।
हर कठिनाई में,हर परीक्षा में ,दोनो में एक तरह की निश्चयात्मक प्रतिबद्धता दीखती। है।चाहे वह प्रणयसूत्र बंधन की व्याकुल प्रार्थना हो; वन गमन के क्षणों में हर स्थिति मे साथ रहने की उत्कंठा हो ; सीताहरण के बाद साधारण मनुष्य की तरह व्यथित हो एक दूसरे से पुनर्मिलन की व्याकुलता हो;प्रजा के संशय पर प्रेमी राम का सीता का त्याग हो; ऊसके पश्चात ब्रम्हचारी का कठोर जीवन जीना हो;या लव कुश का राम मिलन के पश्चात माता सीता का धरती मे समाना हो अथवा श्रीराम का सरयू मे देहत्याग करना हो।सारी घटनायें, उनके अटूट प्रेम सूत्र की कथा और व्यथा परिभाषित करते हैं।
जीवन की प्रत्येक सीढी पर, दोनों ने एक दूसरे में असीम विश्वास का परिचय दिया। दोनों का व्यवहार इतना शान्त और परिपक्व दीखता है जैसे दोनों एकदूसरे के, हर निश्चय से सहमत हों ।
देश को व्यक्ति से ऊपर आसीन कर घटनाक्रम के सभी पायदान पर, सीताराम के समर्पित व्यक्तित्व का असाधारण सन्तुलन प्रमाणित होता है। मेरी समझ से कर्त्तव्य का महत्व, व्यक्तिगत भावनाओं से ऊपर रखना,यह प्रमाणित करता है कि, सीता माता और श्रीराम के आपसी चारित्रिक सहनशीलता घनत्व ने ही,श्री राम को “पुरुषोत्तम राम” और सीता माता को “शिरोमणी अर्धांगिणी” बनाया।
सीतारामायण, समाजिक परिवेश में राज परिवार और समाज के अस्तित्व का विश्लेषण है। सीताराम की कथा एक राजा और रानी का आदर्श चरित्र प्रस्तुत करता है।राम राज्य के राजा और रानी स्वयं से ऊपर उठ कर प्रजा के सेवक है।वे अपने सुखानुभूति को त्याग कर प्रजा के इच्छानुसार ही जीवन व्यतीत करते है चाहे परिस्थित कितनी भी कठिन क्यो न हो!
अतः “रामायण” को “सीतारामायण” कहना ज्यादा उपयुक्त और माता सीता के प्रति भी न्याययुक्त होगा।।
सीताराम की जय!
शमा सिन्हा
11-01-2021
मे थे।