अंधेरी गली पार कर उग रही थी सुबह लालिमा की,
सहसा लगा एक परछाई,झाड़ रही थी धूल आंचल की ।
पथ के किनारे,मील के पत्थर से सटकर वह थी झुकी,
प्यास से सूखे होढ ,आखों से ,खोज रहे थे पानी की नमी।
कुछ असहज,लडखडाती चल रही थी ,चाल थी धीमी,
नजर गढा कर देखा, पाया वह थी बहुत थकी सी बैठी।
“कौन हो बहन,किस सुदूर प्रदेश से हो तुम आई?
धूल धूसरित है आंचल तुम्हारा,आखें असुवन भरमाई।
मीलों लम्बी यात्रा कर जैसे, तन से हो टूटी ,धकी हारी।”
मैने धीमी आवाज में पूछा उससे,फुसफुसाहट भरी ,
ताका उसने ऐसे,जैसे रिस गई हो उसकी पीड़ा सारी।
“सच कहा तुमने बेहना,खुरद दिया तुमने मेरा गहरा घाव,
बताऊं कैसे कितनी दूर तक फैला है,मेरे कर्मो का पांव?
चलती ही जाती है यात्रा मेरी,गांव गली और पगडंडी,
बस्ती, मोहल्ले, ताल तलैया,पर्वत के चहुओर मडराती ।
कच्ची ,पक्की ,मिट्टी से सरकती गांव की पुलिया पर भी।
नहर के साथ साथ, परिछते कूल, बान्धों के घेरे पर भी
नदियों के संग दौड लगाती,पहुंच जाती सागर तट भी,
कभी अचानक खुश हो लेती,देख नवेली बहू से ठिठोली,
दूल्हा-दुल्हन के साथ नाचते,उल्लास भरे बारातियो की।
अथक दौडते रहते रिक्शा,छकडा,भरी गाडी उतपादों की,
जाते देख धरती की सौगात, हो जाती मेरी छाती ठण्डी।
भर जाता है तब पेट मेरा, जब हंस देती है मुनिया छोटी।
वैसे तो थकते,छिल जाते हैं,अंग प्रत्यंग अक्सर मेरे सभी,
पर मन को पीड़ा देतीं,सरहदी दुश्मनों की शाजिशें खूनी!
मकसद है बिछाना जिनका,वीरों के लिए सुरंगे बारूदी,
नृशंस गोलों से बिना वजह,हैवानो की होती खूनी होली ।
बंदी बन लाचार पडी, देख जिन्हे मेरी छाती है दुखती।
उस पीडा के आगे,भला इन घावों की है क्या गिनती?
भारत की धरती जब भी,रक्त सरिता से है रगं जाती,
विक्षिप्त हृदय से तब मां,अपने भरत वीरों को है पुकारती
स्वातंत्र्य परिवेश में रंगे, जन्म-भूमि धर्म स्मरण कराती।”
आखों में भर कर आंसू, वह कुछ पल यूं वह रुक गई
याद हो आया जैसे उसको सन् 62,65,71के युद्ध कई।
देने को सान्तवना,दृढता से उढा कदम मै आगे बढ गई
देखा ,आंचल लहरा,वह स्वयं स्वाभिमानी परिचय दे रही।
“जन गण हित चहुं दिशा में, पाषाण चीर मैं फैली रहूँगी
अपने नौनिहालों की राह मे,न्योछावर इस तन को सदा करूंगी “।
जग गया मेरा तन मन,उमडा राष्ट्रीय चेतना का आवेग,
कर्तव्यबोध जग गया, देश भक्ति चेतना लेने लगी पेंग।
शमा सिन्हा
10-2-’21