मेरा घर,मेरा सपना

जाने क्या रोश है उनको,मेरे घर के वजूद से,

बात बात मे उसे मिटा देने का जिक्र है करते।

न बंधा उससे,उनकी कमाई का हिस्सा कोई,

फिर भी समेटने की जिद करताहै हर कोई।

“खरीदना है क्या?”सोचती हू पूछा कभी मै उनसे,

रोक लेती हू ज़बान कि बेवजह बात न बढ जाये।

खीजता है कभी मन बहुत,होती है कुंठित भावनाये,

उमंग लेकर अनेक खडी किया था यह इमारत

क्यो सबको है व्याकुलता,मिट जाए इसकी हसरत।

है नही मोल शायद आखों में ,हमारे सपनो का

तिल तिल जोड कर ,हमने मेहनत से खडा किया था।

आज भी याद है, दौड धूप,”वो “लम्बा सफर करते

नाप कर गहराई, नक्शे के सारे खम्भे उकेरे गये थे

रखी गई थी फिर लोहे की छडो पर घर की नई छत

सारे मजदूर मिस्त्री ने पाया था सुस्वादु रसीला भोज

आया दिन शुभ गृहप्रवेश का,हवन यज्ञ,पूजा सुहानी।

परिवार और दोस्तों ने हौसले से सबने की थी मेहमानी,

हम भी देख रहे थेअरमानो के सपने हो रहे थे सफल

लग रहा जैसे रहने को आएंगे,बस प्रातः के कल

आयेंगे बसाने शीघ्र बसाने,सपरिवार एक दिन यह घर

सब रहेंगे शान्ति से सुखभरा अपना नीड़ निर्माण कर।

पर होता नही कभी जो चाहो,जाने किसकि लगी नजर

अभी आने की बात की थी, कि बीत गया सुहाना सहर।

उड गया परदेश वह पंछी बसा रहा जो अपना सुख घर

एक ही पल में,हो गया खाली,उमंग भरा वह सफर

क्या बताऊ किसीकी नजर लगी इतनी कठोर कडुई

देख न सका सजता घोसला,उडाने लगाचिडा- चिड़ई।

तत्क्षण गूंजी जलती गूंज सबकी”सिमटने का है ये वक्त “

उसे छोड़,अब रहो छोटे घर में”आई हिदायत सख्त”।

सब थे हिम्मत तोड़ रहे,कठिन वक्त था आया बहुत

बार बार कहकर वे,तोड़ रहे थे मेरी हिम्मत का ताबूत।

कराहता मेरा मन ,कर रहा था,फिर फिर प्रश्न बस एक

जवाब तो थे मेरी ज़बान पर भी,किन्तु शान्ति है मेरी टेक।

मैने न पूछा निजी प्रश्न किसी से,आया था अवसर अनेक।

मूढ़मति को समझाना,नही था मेरे आदर्श का खेल।

लगता है , औरौं की समृद्धी,लोगों को देती है कष्ट गहरा,

समझदारी इसीमें,पहने रहो हिम्मती गम्भीर सेहरा गर्वीला।

उनके मन की तकलीफ समझ,खुद को ढाढस हू देती

देने वाला ऊपर बैठा,सम्भाल रहा वह मेरे मन को

है रक्षक वही एक मेरा,करेगा पूरा मेरे सपनों को!

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