क्यों कहूं मै थक गई
गति ही जब प्रकृति है।
ठहरता नही कहीं रास्ता,
चलना ही उसकी रूचि है।
क्यों कहू अब मै हार गई
श्रम ही श्रृष्टी की है प्रकृति।
चलती रहती निरत हवा है,
बाधा छोड बस दिशा बदलती!
क्यो कहूं,मेरी आस छूट रही,
जब श्वास डोर से है बंधी वहीं।
पुनः पूर्व उगताअस्ताचल गामी ,
नित देता संदेश,”जीवन क्रम है यही!”
क्यो न कहूं मैं भीअब देखती वही,
सजे मोरपंख माधव शीश सीधे ही।
सीधे ही होते वे वृक्ष विशाल सभी,
नभ पार,चरणों में रहती दृष्टि जिनकी!