रखा है तेरे लिए, दाना और सकोरे मे,मैंने पानी
चुग लेनाआकर,दो बूंद सही पी लेना गौरैया रानी!
मुझे तो कुछ नही दीखता,तू क्या है चुगती?
चंचल ढूढ़ती आखों से, तू जाने क्या है खोजती।
चू चू ,ची ची,कुहुक कुहुक कर नित नौ राग सुनाती
अगर मै जो समझ लेती,संग तेरे बहुत बतियाती।
होता कितना समय मनोरम,तुम और मै बातें लम्बी करतीं ,
तुम अपनी उड़ान,मै कथा पुरानी कहती,हम कितनाहसतीं!
तू दे देती दो पंख अपने जो,तेरे ही संग मै भी उड़ चलती!
ऊंचे पहाड़,बादल बीच ,फूलों के बाग, सब देख हम आतीं!
सच मानो,रोज सुबह, बाट तेरी ब्याकुल हो,हूं जोहती,
तेरी मीठी बोली सुन,किसलयों में, तुझे ही हूं खोजती!
फड़फड़ा कर पंख,कभी चकमा भुझे जो तू है दे जाती,
चकरा कर, ऊचाईयों में, हर दिशा को मै पुकारती रहती,
ऐ पाखी,कभी आवाज तेरी सीटी सी क्यों है लगती,
हड़बड़ाहट सी होती है,लज्जा से मैं हूं सिकुड़ती।
मेरे आंगन की तू लक्खी,नित करती घर-मन गुंजार,
हरे भरे मेरे इन वृक्षों की, गूंज तेरी करती नव-श्रृंगार !
ओ परी नन्ही !आ इन फूलों का मधु-रस तो पीले!
इनकी कोमल पंखुड़ियों को,अपने स्पर्श से दुलार ले!
देखो प्रतीक्षा में तेरी ,गर्दन इनकी झुक सी है जाती,
झूलती है डाली का झूलन ,पर राह तेरी ही हैं निहारती।
दाना भी है कह रहा,”आ जाओ अब बन मेरी मेहमान ,
स्वच्छ शीतल जल है , थकी होगी,कर लो इसका पान!”
“आज न आ सको तो, सखी! कल जरूर तुम आना,
छुपकर ही सही,शाखाओं बीच मधुर गीत सुनाना!”
शमा सिन्हा
17-6-22