मूक दृष्टा बनी तथ्यों को खोजती हूं मैं,
हस कर फिर शीघ्र हार मान लेती हूं मैं!
उत्सुक हूं ,पाने को संवेदना क्षणिक,
जहां बना हर व्यक्ति बस एक बनिक!
क्या हर गली मकान से जुड़ा उसका पता?
सूत्र नही ऐसा जो बना दे ह्रदय को प्रवीण
प्रयत्नों से जुड़तें है असामयिक विचार संगीन!
करते हृदय मे वास ,फिर बनाते क्यों इतनी दूरी
चाहता जो इंसान वह प्राप्त हो नही सकता
मेरे हर आस को कर सकते तुम ही पूरी!
देकर दर्द बना लिए हो क्यो इतनी दूरी
जुड़ा है असीम आकंक्षा से हर घर का पता!
समाई है हर काया मे वह आणविक रचना
बना कर तमाशा कर रहे हो कितने प्रवीण
माया की छाया में पल रही ठगनी प्रवंचना!