कभी नहीं पूछा

पूछा नह ,कभी धरा से

कैसे सहती हमारा वार

लालच मे तुम्हेबींधता

यह जग, यह निष्ठुर संसार।

ह्रदय चीर तुम्हारा, लूटते

तुम्हारे गौरव का संसार,

फिर तन कर गर्व से कहते

देखो दिया है,धन अपार!

मूक बनी तुम देखा करती

जरा न उलटती,ह्रदय का भार,

बदले मे मेरा तनमन पालती

अंजुली मे लेकर,भाव उदार।

बार बार थी तुम हमें चेताती,

देख कर करना अस्र प्रहार,

पड न जाऐ उलट कर वार!

रचयिता का होता है

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