नटखट नवेली चुपके से बिजली बिंदी चमकाई है
उडते हुये परिंदों के पंखों मे जा, यहसमाई है
यहाँ छमछम यह करती, वहाँ रुनझुन बरसाती है
रवि किरणों के संग कहीं, अधीर हो मुस्काती है
कहीं लहरा कर चदरिया नीली, सपने कई सजाती है
हरी बनी वसुधा पर फिर रसीली फुहार बरसाती है।
कहीं मचलती, कभी उछलती, पीहर से यह आई hai
थिरकती, मुदित मन -कुसुमी तन से, रुक रुक कर है किलकारती ।
कहती सबसे कानों में, “लाई पिया-स्नेह भरा आंचल
अपार, छींट छींट, बांट बांट कर, सजा दूंगी मैं सौगात
अम्बार घर आंगन उन सबका, देख रहे जाने कबसे जो
बाट मेरी खेतों और खलिहानों में मिल, सौभाग्य रोप रहे हैं क्यारी ।”
सहसा क्या हुआ इसे, धीरे से फैला कर श्यामल ओढनी
“अगले बरस फिर आऊँगी “, कह नयी दिशा को वह चल दी।.