हक नहीं पूछू”
मुस्कुराते थे जब-तब बचपन में, बिना वजह हम,
डांट खाकर भी न होती, वह हँसी जरा भी कम।
पूछा नहीं तब, जिन्दगी से, क्या ये रहेगा यूहीं हरदम?
लेकर तोहफा खुशी का, बड़े लापरवाह हो गये हम!
बाकी अभी भी, ज़हन में है अनगिनत,कई एक भरम,
अब जगह न रही कि सवाल करें उससे कोई भी हम।
बहा रही कश्ति-किस्मत,उसी रवानगी से जा रहे हैं हम,
हवा की दिशा भी तो, कर्मो की गठरी में बान्ध रखे हैं हम।
शमा सिन्हा
29.10.’20

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