आदतें बदल रही है” आदतें बहुत बदल रहीं हैं, अब मेरी खर्च की लकीर हो रही कुछ टेड़ी, पहले मन को बहुत दबा लेती थी अक्सर अब छूट, मैं हूँ दे देती। तब पाई-पाई का हिसाब थी रखती , अब लंगर से निकली, नाव सी है बहती ज़बान की उड़ान पर पोटली है खुलती, दबी इच्छा को अब कर लेती है वह पूरी । सफर में पहले पराठा लेकर थी चलती, टिफिन को छोड़ देख खोमचे अब मचलती, खुलती टेबल पर,कप नूडल्स हूँ ठंढाती, चुस्कियाँ ले लेकर ज़बान से है सुरकती! सोचती ,क्या इंसान ऐसे है बदल सकता? सिक्के गिनने वाली से ये कैसे है हो सकता? क्या उसे अब कल का भय नही है सताता? या कुछ इस पल को भी मन जीना है चाहता? संजोती थी तिनका तिनका वह छुपा कर, “साँसे गिनी होती है”, कटु सच्चाई भूलकर, जुदा हुआ साथी जबसे, यूँ मुँह मोड़ कर, उचट गया भरोसा, कल के औचित्य पर! अनुभव कहता,क्या पता कब क्या होगा, जो इस पल है कौन जाने, क्या आगे होगा? कल की उम्र, उसका रचयिता ही जानता होगा, “आज-अभी -अब”,बस इतना ही हमारा होगा! अनूभूति यही,उसे भी है निरंतर खंगालती, बदल जायेगा कब रास्ता,वह नही है जानती थमे मोड पर, मनमर्जी कर लेना वह है चाहती अचंभित हो,वह खुद को ही रहती है निहारती। शाम सिन्हा 17-12-19