किसे कहते हैं जादू ,विश्वास ही समझो, है इसकी परिभाषा!
वस्तु हो जाए पल मे दृष्टि परे,मिट जाए पाने की आशा,
आये होश तो ठिठक कर रहे हम कोना कोना खोजते!
जैसे कोई हमारे हाथो से लेकर चला गया हो लपक के!
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अभी मैने देेखा उसे,सुना था उसकी आवाज पास ही गिरते!
सोने की बनी नाक की कील, उसमे जड़ी हीरे की कनी चमकते!
बहुत हड़बड़ी थी,सोचा अभी लौट कर जतन से खोजूंगी,
नही जानती थी उसे कितना भी खोजू कभी ना पाऊंगी!
फिर न दिन-रात का रहता फर्क,ना थकावट -नींद की होती,
बिन बोले सबको मेरी आखें मेरी व्यथा की कथा कह देती!
पल पल ,आठ पहर,चौबीस घंटे छवी एक रहती आखों पर
मैं हतप्रभ थी खुद पर,एक कील ने रखा था पागलपन कर!
उठते- बैठते,आते -जाते,उसी की सुध मन में घूमती,
कूड़े-करकट ,जमीन,बिछौना,पल पल उसी को ढूढती!
थक हार मै यही स्वीकार करने को बाध्य हो जाती
शायद उसका इतना ही साथ था उसका,यही थी नियती,!
विधि का विधान हम छोड़ देते हौसला,होगा जो है होना,
हम कितना भी तोड़े माया,आखें ढूढ़ती रहती हर कोना!
“यहीं तो सुनी थी आवाज,ठ्क से हुआ था,लौट कर ढूंढ लूंगी,”
कहकर हडबडी से मै जरूरी काम निपटाने आगे बढ़ गई।
किन्तु हाय! वह जाने कहां छुुप कर मेरी बेचैनी देखती रही,
बिस्तर पर खोजा,बाल सहलाया,जमीन पर पड़े जूते झाड़े,
बहुत होशियारी से कोन कोने से निकाल कर धूल कण चुने।
पर वह बेवफा यूं गायब हुई, आखों को कहीं नजर ना आई,
मैं चकित उदास मन से,हार मान कर प्रारब्ध को गले लगा ली।
किन्तु,मेरे हारने से माया ना हारी,और भी वह बन गई प्रबल ,
जब भी मैं कमरे में आती,वह एक ही बात याद कराती सबल!
बड़ी उम्मीद से,मैंनें कामवाली को भी दिया ईनाम का लालच ,
जैसे जैसे वह झाड़ू चलाती, पीछे आंख गड़ाती मेरी गरज!
अध्यात्म के पाठ देते दुहाई, समझाते सब कुछ नही है ले जाना,
मिट्टी से उपजी ,वही मिल जाएगी,यह है किस्सा बहुत पुराना!
तब ही हमारी दृष्टि टिकी दिख पड़ा एक था जूता पुराना,
चमका कुछ सुनहला तार मे गुथा पड़ा था अमूल्य खजाना!
अद्भुत हुआ जैैसे चमत्कार, पाकर उसे मैं हुई आनन्द विभोर
जैैसे कृष्ण-कृपा शरद् पूर्णिमा,अमृत पारण कर लिया चकोर!