पंछी बन अकली,आसमान छानती हूं
तुम्हे छोड़ कोई और नही चाहती जिसे हूं।
दुनिया के मेले में,बस तुम्हें ही ढूँढ़ती हूं
तुम्हे ना पाकर निर्रथक हो जाती हूं।
जाने कैसा है यह विश्वास मोहन
हर वक्त बैचैनी छाई हुई है आंगन,!
जानती तुम्हे हूं बसे तुम हो कण कण !
इसी विश्वास से घिरी मैं आस के वन!
सुन कर पुकार मेरी आओगे एक दिन!