“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!”
कहां छुुप गई वो रंंगीली प्यारी होली,आती जो बन अपनी,
लेकर संग हुल्लड भरी बाल्टी , लाल- हरी नटखट सजनी?
हमें भुलाने , मां हाथों में रखती,दस पैसे वाली पुड़िया कई,
अबरक चूर्ण मिलकर जो बन जाता,चमकता रंग पक्का सही!
हम शातिर बन इकट्ठा करते, बाजार में आई नई तकनीकी,
भैया, दीदी तब काम आते,पोटीन की बनती लेप चिकनी!
जिसने हमें गत वर्ष डंटवाया,विशेष उसके लिए रखी जाती!
चेहरा साफ करने में, महोदय की हालत बहूूत दयनीय होती!
मिल जुल कर सभासदों की,किसी शाम हम कर लेते गिनती,
होली के लिए, चयनित होने को नेता करते हमसे मीठी बिनती!
किसी तरह रुसा फुल्ली में,बनती हमारी भी एक बाल मंडली,
मुखिया करता निश्चय, किसे लगेगा रंग, किसे पोटीन कजली!
जिसने ज्यादा किया था तंग हमें,पहले उसकीआती बारी ,
नेता के पीछे,ढोल बजाते चलते हम, लिये रंग बाल्टी बन प्रहरी।
सजा प्यार-उमंग-आनंद पहुचते उनकी चौखट,तोड़ने दुश्मनी,
फाल्गुनी बयार संंग, गीले रंग से नहलाते ऐसा,लगती उनको कनकनी!
“कर लो आंखें बंद” चुुपके से गालों पर सखी का रंग लगाना!
भुला ना पाये आज तलक भी, दूर से उसका मिलने आना।
सुबह का रंग अभी थोड़ा ही उतरता,कि हम चल देते खेलने अबीर,
पर रंंग लगे हाथों से खाया पकवान,डालते मदहोशी की लकीर ।
भूला नही,शिवालय में दादा- दादी का गीला गुलाल छिड़क,देना आशीर्वाद ,
उनसे दो रूपये पाकर, आनंद विभोर मन करता आह्लाद !
कई दिनों तक,अंदर बाहर,हम घूमते लेेकर लाल हरी निशानी,
देख सबकी भृकुटी तनती, अम्मा-बाबा की सिकुडती पेशानी!
“ऐसा भी क्या खेलना होली,रंग ना जिसका छूटे सप्ताह दिन!”
“होली है भाई,होली है!”उन्हे अनसुनी कर, हम करते मस्ती ,रुठे बिन!
मस्त गुजरते दिन महीने,कहते गाते बीती अपनी होली की गाथा,
आस हमारी तब पूरी होती,नव वर्ष पुनः जब होली लाता।
रसभरी-पुआ,कचौडी, दम- आलूकी खुशबू से भर जाता आंगन!
सखियों के घर,सखियों के संग, मीठी ठंडई करते हम पारण!
शमा सिन्हा
15.3.23