“नया सवेरा”

गहराते आकाश पर छिटकने लगती है लाली!
फूटने लगता है उजाला,चीरकर रात्री काली!

समस्त नभ में गूंंजता है परिंदों का कलरव,
नीलाभ हो जाता है गतिशील शीतल अरणव!

धरा कर सर्वस्व समर्पित बन जाती मूूक दृष्टा,
चल पड़ता मनुष्य सिद्ध करने अपनी श्रेष्ठता!

इच्छा और अभिलाषा की मचती धराशायी प्रतियोगिता,
बिदा होती सुख-शांति,देकर सिर्फ असीमित व्यथा!

सम गतिमान, सप्त अश्व रथ आरूढ़ सूर्य पथ चलता ,
सत्यार्थ भूले मनुष्य को माया में फंसा देख वह हंसता!

बीत जाते यूंही तृष्णा लिप्त काल के आठों पहर,
उचटती नींद,अतृप्त अभिलाषा न रोक पाती सहर!

लिप्त रहता वह जरूरत से ज्यादा जमा करने में,
चला जाता आकर नया सवेरा उसकी मादकता में!

कर्मानंद की मर्यादा,बताती रहती समय की धारा,
किंंतु स्वप्न- तल्लीन वह देख ना पाता नया सवेरा!

शमा सिन्हा
29-11-23

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