“यात्रा”

कहो सखी,करूं बात मैं किस किस यात्रा की?

क्या गीता के सात सौ श्लोकों में अर्जित ज्ञान की?

या मां के आंचल में दुनिया से छुपकर अमृतपान करने वाली?

या बालपन की दौड़ती भागती,छिपा-छुपी का रास्ता ढूढ़ने वाली?

अथवा विद्यार्जन पथ पर अनेक कोशिशों में जूझती जिन्दगी?

क्या प्रेम के झूले पर मीत संग, बिताए अंतरंग पल की गिनती?

या भोजन वस्त्र और आवास के बीच लुटाए समय से विनती?

या घर परिवार और बच्चों में बटीं वह व्यस्तता की अर्जी ?

करुं कैसे व्याख्या थके हुये कमजोर शरीर के हड्डियों क मर्जी ?

या स्मृति पट से निकाल दिवंगत मित्र की दी हुई सीख की लम्बी पर्ची ?

टठस्त यात्रा की खामोशी बिखरी ,बोलअचानक मुख से उसके फूटे!

ये फेहरिश्त तो आधी ही है ,छूट गये अनेक मन को जो हैं अति व्याकुल करते!

उन कर्तव्यों की करूं गिनती कैसे ,जो बेटी-बहन-मां बन थी निभाई ?

क्या सोच मैंनें कदम उठाए, उस मंदिर तक क्यों पहुंच ना पाई ?

समय के साथ निरंंतर करता शरीर अनेक गूड़ रहस्य भरी यात्रा।

” क्या निर्णायक काल हैआया?”व्याकुल वह लहरों से पूछ रहा, बन अटल पात्रा।

शमा सिन्हा
4-12-23

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