ससुराल की सैर

“ससुराल की सैर”

नई दुल्हन आई थी नये घर,नया हुआ था ब्याह!

मन ना लगता,याद आता नैहर,चेहरा हुआ था स्याह!

मोहिनी सी सूरत बनाया उसने,मेकअप सारे हटा कर,

“आज अम्मा के घर जाऊंगी!”, कहने लगी रो रोकर ।

बन्ना अलहड़ जवान,प्रतिदिन करता दण्ड -बैठक मस्त!

खाने का बड़ा वह शौकीन और पचाने मे था बहुत चुस्त!

लगा उत्सुकतावश मचलने,सोच कर पकवानों के प्रकार!

निकले पड़े दोनों,दो पहिया से ,शादी शानदार उपहार !

सुना था उसने,”ससुराल में होती है खातिर जमकर”

सोचा “हर्ज ही क्या है चलो आते है उन से मिल कर!”

साले ने परोसा रसमलाई होने लगा सपना साकार !

एक एक कर टपाने लगे, बीस के बाद आई जो ढकार!

फूला पेट,बेचैनी बढ़ी,लगे सोचने!”जाना है क्या सीधा ऊपर “

इससे अच्छे तो अम्मा वाले वो रसगुल्ले मिलते थे जो गिनकर

पत्नीव्रता लगी चिल्लाने” क्या बेवा बनाने कोआये ससुराल ?”

तेरी अम्मा मुझसे पूछेगी ,”कहा छोड़ आई मेरा लाल?”

” बचा लो मेरी जान पहले,सच उन्हे मैं खुद बतला ऊंगा!

कसम है मुझको उनकी,अब ना कभी ससुराल आऊंगा!”

(स्वरचित व्यंग कविता)

शमा सिन्हा

रांची।

ताः17-12-23

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