चादर मे छुपाकर मूंह, मैनें पुनः उसे रोका।
आज फिर एक बार मैनें ही उसे टोका!
नींद मेरी अपने समय से जाने को थी तैयार,
सहसा चलने लगी, बाड़ी से आती मीठी बयार!
देर से उठने पर अकसर जो सुनती थी मैं ताने,
झूठा उन्हे साबित करने को ढूढ़ने लगी बहाने!
मां की वह आहट ना थी,फिर भी मुझे यूं लगा,
जैसे उसी के स्नेेह-स्पर्श ने मुझे थपथपाया!
उसकी चेतावनी की जगह,एक मीठी धुन संग जगाया,
उसी पुरानी कहानी ने मुझे था फिर से चेताया!
कोमल उसका स्पर्श दुलार ! लदा थी प्यार से उसकी थाप।
मुझे बिल्कुल ही ना पता चला यह किसी दुश्मन का था राग!
सशंकित जिसके लिए थी वह काम में थी व्यस्त और कहीं,
थपथपाया था जिसने दुलार से,वह तो था और कोई !
उसका दूर से भी कोई रिश्ता ना था, मेरी हितैषी से
मां को मैनें, आखों से कभी, देखा ना था बैठे फुर्सत से!
थपथपाते हाथ बेशक उस बेशर्म !उस बेहया के थे!
प्रतिदिन वह“आलस्य ”,आ जाती मुझे प्रातः खोजती !
जगने के समय, मीठी नींद का उपहार थी दे जाती!
रवि हो या सोम,उसे वारों से नही था कोई भी मतलब,
काम जब तक बिगड़ ना जाए, वह बनी रहती तबतक!
कितनी बार मैनें पूछा,”तुम क्यों ऐसे वक्त पर हो आती?”
बिंदास जम्हाई लेकर बोली,”तुम्हें छोड़ और कहां जाती?
तह लगाकर चादर, कर्म-पथ तुम अगर अपना लेती,
होकर लाचार किसी अकर्मण्य को मैं संंदेश अपना दे देती!”
(स्वरचित कविता)
शमा सिन्हा
ताः 24-12-23