मिली आज चेतना को मेरी, बड़ी अनोखी एक सौगात!
अंतर्मन नेेत्रों को हुई , विश्व देख रही आखों से बात !
बांटने में थे दोंनों तत्पर अपनी अपनी उलझी गांठ!
बताया एक ने तभी,”बिछी बाहर चौपड़ की बिसात !”
मझधार से दूजा खींंच रहा था नौका ,बीच समुंदर सात!
दोनों ही धे उलझे बहुत, खड़ी थी समस्या पात पात!
कहा एक ने, “आओ हम ले लें,प्रभू-रचना काआनंद !”,
दूसरे ने चेताया”धैर्य से बढ़ना आगे,रख इच्छा को बांध!
विशाल आसमान के तारे गिनते, फंस ना जाये तुम्हारे पाद!
खो जाता है विवेक जब , बहती बसी-बसाई बस्ती!
भांती नही भलाई की बांतें, जब करती “दोनो आखें” मस्ती!,
खो जाती है इस लापरवाही में,तोलने की अनमोल शक्ति!
इस उपहार का उपयोग हो ना सकता बिना सद्बुद्धि !”
(स्वरचित मौलिक रचना)
शमा सिन्हा
04 -01-2024