अरे, यह क्या हुआ बिखर गया है क्यों समाज
धन की लोलुपता छोड़ कुछ नजर ना आता आज!
नदी किनारे संयुक्त हुआ था करने को नेक काज
टुकड़ों मे है बिखर गया कहलाया था जो समाज !
कहां बह गई वह टोली,गढित वह स्वर्णिम सभ्यता,
लुप्त हुई मिठास दोस्ती की, अदृश्य हुई मानवता !
वह परिवार, हमारा आस-पड़ोस में फैला संसार !
देखो हुआ छिन्न-भिन्न ,पड़ा स्वार्थ का कटुकुठार!
अर्थ ने बोया बीच हमारे क्यों इतना वैचारिक मतभेद ?
थाली से हमारी जाने कहां चला गया परमार्थ समवेत!
“हम हैं बीज इसके!”हुआ निर्जीव यह वैचारिक मत!
ज्यों कस्तूरी की खोज हिरणमें,तलाश है इंसान में इंसानियत!