चाहती थी मैं अपने मन की बात उसे ही बताना!
मन कसक उठता ,जजबाती बन जाता अफसाना!
खोल नही पाती गांठ उफन कर रह जाता पैमाना!
मिल कर अपनों से,मन रहता है वैसा ही अंजाना!
प्याले में खोजती हूं मेराअपना वह पुराना आशियाना!
लेकिन तय हो गया है, जल्द मेरा भी इस घर से जाना!
क्या कह कर समझाऊं?कैसे अपने मन को ढाढ़स दूं?
ढल रही शामअब,आशा का सूर्योदय कहां से लाऊं?
विभ्रान्तियां अनेक पल रहीं, सबके विचलित मन में।
रख कर खुद को अलग ,ढूढ़ रहे सब प्रभू को वन में!
चल रहा तन-मन,अचम्भित हूं,उस शक्ति को कैसे पहचानू?
सत्यार्थी के सिवा,कोई समझा नही,फिर मैं कैसे जानूं?