यादों के झरोखे से

कई एक चित्र सामने आ जाते हैं।

जब जब झरोखों को खोलते हैं!

तब कन्या जन्म ना था शकुन ,

पर रखा उन्होने बना प्रेम-प्रसून !

जन्म पर दिया डाक्टर को कंगण,

त्योहार सा बना दिया वातावरण !

मैं गुड़िया छोटी सी ,फ्राक पहने ,

धारीदार स्वेटर, कलाई पर गहने!

पापा बनाते मेरे लिए अनेक गाने।

अपनी ही धुन मे लगते थे वे सुनाने!

“छम-छम गुड़िया छम-छम चली”

नाच उठती थी मैं बन खुशी की डली!

चारो ओर पलंग के, मस्त मैं थिरकती

परियों सी,बालों को फूूलों से मां संवारती !

गोल गोल नांच कर,फ्राक को मैं फैलाती!

अचानक चकराकर,धम्म से फिर गिर पड़ती!

व्याकुल होकर, वे दोनों मुझे अंक में भर लेते!

लाल हुये मेेरे गाल देख वे,मुस्कुरा कर चूमते!

यादों के झरोखे से अनेक दृश्य आज दीखते,

वो दिन और मात-पिता के लिए,वे बहुुत तड़पाते !

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