उम्मीद का दिया जला कर है रखा
बहते नीर को कभी नही है रोका
यह नही कह कभी सकती मैं,
आस सदा के लिए थी दफ़्न हुई !
हां इच्छा को दबाने की कोशिश से
मिजाज रूखा सा जरूर हुआ था!
चांद बिखेेरता था अपनी रौशनी !
सितारे भी थे तब संंग टिमटिमाते!
चांदनी शर्म की चादर ओढ़े रहती,
बोलने की कोशिश कर ही रही थी,
तबतक सूर्य किरणों ने दस्तक दे दी!
संकोच में ही सारे ख्वाब सिमट गये!
दिन महीने रिवाजों के आगोश छिपे!
धारा बदल गई, यादो के गिरफ्त में!
जिन्दगी साथ बिताने का नाम बदला!
बदल गया हमसफ़र बनने का सपना!
उस गुबार की जगह स्थिरता ने ले ली
और रिश्ते का दिया नया नाम “दोस्ती!”
8/2/24