कौन कहता है नियमित होतीहै नियती!
वह मतवाली मनमानी कुछ भी कर बैठती!
दौड़ने में साथ उसके मानव भटकता ही रहता
वह मेहनतकश कमाता,कभी सहेजा करता !
झांक गिरेबान अपना जब भी आप देखेंंगे,
हरबार खुद को चौराहे पर खड़ा पायेंगे!
देख कर सबको वह बेवफाई से है हंसती ,
परिस्थिति देती उलझनें पर नही सुलझाती !
थका शरीर जवाब दे देता जब स्थिरता आती
पर्दे में छुपी, पहले बहुत सारे रास्ते दिखाती है।
आगे बढ़ने पर मकड़ी की जाले में बांध लेती है।
कभी निवाले को तरसाती,कभी माया मेंबांधती,
कदम कदम पर प्रश्न कर उकसाती ही रहती!
छुपा छुपी में सदा वह संंसार को व्यस्त रहती,
अचानक दिया बुझा, श्वास लेकर उड़ जाती!
उसके मिजाज के आगे हार गये जब सब देवता!
कहो,कभी कोई क्या दोस्त उसे बना सकता?
(स्वरचित कविता)
शमा सिन्हा
रांची।
27-2-24