बनाई थी उसने हमारी तस्वीर एक प्यारी
जाने कितने रंग इसपर चढ़ गये मनमानी!
कुछ जमाने की जरूरत ने जरूरी समझी
कई संग लाई प्रतियोगितात्मकता की कूची !
अपने को सर्वोत्तम सिद्ध करने की दौड़,
उड़ा ले गई वह मां के हाथ का चिड़िया कौर
रंगीन श्रृंंगार का तह बन चेहरे पर छाई!
कोमल मुस्कान एक तह तले छिप गई ,
स्नेहिल रिश्ते हटा व्यवहारिकता आई!
प्राकृति की देन बन गयी कजरी काई,
वास्तविता की हंसी सबने ही है उड़ाई!
फटे पाकेट में ठहरती नही सच्ची पाई!
कहने को रिश्ते की गिनती अनेक होती ,
सब पर एक चादर मोटी है चढ़ी रहती !
हर पल उसे हम सम्भालने में लगे रहते,
अपना गिरेबान छोड़,बेवफाई को हैं गिनते!
जाने किसे जीतने को हैं हम लपकते?
पृथ्वी गमन पूर्व हिसाब यहीं पर हैं देना!
फिर ये मुखौटा हम सबने क्यों हैं पहना?