मन लगाता आकाश परे छलांग
ले लेते हैं सपने रूप सांगोपांग !
लालच के जाल में जीव तैरता रहता,
भोगी बना,योगी का स्वांग है रचता!
धरा पर वह स्वर्ग उतारना चाहता
मृग बना मरीचिका सदा है खोजता!
समेटकर अथाह ,वह रहता है प्यासा!
अपनी युक्ति से खुद को देता है झासा!
इस शरीर से वह रखता है अथाह मोह।
हराने को नियती, वह पथ पर रखता टोह!
दृष्टि पाकर ,विहीनअन्तर्मन ज्योति डोलता
सत्य परिचित होकर भी वर्चस्व मद लोटता!
विवेक शून्य वह पृथ्वी को अपनी सम्पत्ती बना,
लोक लाज मर्यादित ध्वनित को वह नकारता,
वासना की श्वास संग वह आसमान है चीरता ,
जो नही करना चाहिए, वही सब वह है करता!
शमा सिन्हा
ता,: 7-3-24
रांची।