सूर्य

जिनका है उदित और अस्ताचंल रूप मनोरम,

आठों पहर शक्ति जिनकी, रहती सदा सम!

प्रगट होते देेव वही,सुमधुुर स्पंदित अरुणाचल,

मिटा अंधेरा, दीप्त करते,नभ से पृथ्वीतल!

सातो दिवस धरती पर आते सूर्य देव हमारे,

पाकर दर्शन जिनका, कृतार्थ होते पृथ्वी वाले!

निरख रुप साकार जिनका ,अर्पित अंजली भर जल,

तत्क्षण मानव समाज बनता, तन मन से निर्मल !

बस हाथ उठाकर निवेदित होता जब इन्हें प्रणाम,

दर्शन मिलता प्रत्यक्ष,पूर्ण होते अभिलाषित काम!

विश्व-धर्म के हैं आधार, सर्व विश्वास के यही धाम!

सूर्यकुुल इक्ष्वाकु-वंशज,हरिशचंद्र,सगर,जय श्रीराम!

स्वरचित और मौलिक।

शमा सिन्हा
राँची।

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