नभ पर बैठे गुरु, दे रहे संकल्प की थाप ,
भूल तत्व चेतना सत्य,नांच रहे हम-आप!
समझे इस शरीर, इसके रिश्तों को अपना,
मस्त किया माया ने,भूल गए क्या था करना!
हारमोनियम स्वरों सी,जगी असंख्य इच्छायें,
तबले की थाप सी, इंगित हुईं प्रबल इच्छायें!
फिर कैसा नृत्य किया मानव ने कैसे मैं बताऊं ?
भूला वह लय ताल सब,उसको क्या याद दिलाऊ?
शरीर को जो सबकुछ समझे, उस कामी को क्या समझाऊं?
सफलता का सरताज पहन,उसने बदलना चाहा राग ,
अचानक हुआ सरगम बंद, अधूरी कथा बन गई खाक!
चौरासी पार कर आते हैं हम जगत में, भरने को कर्जा,
माध्यम बनता यह शरीर, गिनते गुरु कर्मो ने क्या है अर्जा!
लौकिक,या पारलौकिक हो जगत ! बजता अखंड मृदंग!
नृत्य संयोजक वहीं जगत का,अंत में ले जाता अपने संग!