चौराहे पर गाड़ी हमारी रुकी हुई थी
हम अंदर बैठे, सपरिवार ठंडी हवा ले रही थीं
खड़े ट्रक पर हमारे भवन की गिट्टी लदी थी
उस पर एक मज़दूरिन,बदहवास पड़ी थी!
“मई महीने की धूप फिर भी ऐसी नींद!
अजब रचना है , गिट्टी भी नहीं जाती बींध!”
मेरी बगल में बैठे मेरे पति ने सहसा टोका
मैंने उसको देखा और अपनी स्थिति भांपा!
धात्री-तन से चिपका था एक नन्हा शिशु आश्वस्त,
उसका विश्वास कर रहा था मेरे अहं को ध्वस्त !
ईश्वरीय विविधता पर, मैं शब्द विहीन थी मूक!
समझ ना पाई सहानुभूति दिखाऊ या करूं दु:ख?
चौराहे की लाल बत्ती, सहसा हुई हरी, गाड़ियां चली!
ट्रक में भी हुई हरकत,एक झटके से वह उठ बैठी।
सहज ही बच्चे को छाती से लगा,वह दूध पिलाने लगी!
अचम्भित मैं अपने को देखती कभी उसको निहारती।
उसकी और अपनी स्थिति की स्पष्टता थी चाहती!
किस्मत की शिकायते तत्क्षण सूर्य ने भस्म बना दी!
कर्म का सब था शायद फेरा वर्ना हम दोनों थे मानव !
नर्म गलीचे पर भी हम रातें, जाग कर ही काटते थे,
वह मेहनतकश इंसान नुकीले पत्थर पर सो लेते थे!