मैं उकताने लगी हूं

मैं,बार बार इस मन की पुकार सुनकर,

हर पल इसकी तीव्रता पर पहरा देकर,

हारी,इसको बांधने का अथक प्रयत्न कर,

जीत जाता है यह हर प्रयास को लांघ कर !

पंख फैला उड़ जाता है मुझसे आंख चुरा कर,

हाथों की पकड़ से निकलता फिसल कर !

रुकता नहीं ,कितना भी चाहूं बस में करना,

इसे अच्छा लगता है अपनी मनमानी दिखाना!

समझ गई हूं अब मैं इसकी अजीब हरकतों को

यह रहता सदा तैनात मेरी शांति भंग कर ने को!

सहते सहते इसके  नखड़े अब, मैं उकता गई हूं ,

इससे छुड़ाऊं पल्ला कैसे,समझ नहीं पाती हूं !

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *