चेहरे के भाव कह जाते हैं वह सब
छुपा लेते हैं जिसे चतुर शब्दों से लब!
जताई थी शायद उसने मुझसे सहानुभूति,
चेहरे ने कर दी कुछ और अभिव्यक्ति!
भारी था सिर मेरा,तप रहा था शरीर,
पर समझी, उसके आंखों के इशारे गम्भीर!
“आप अड़ कर उधर बैठ क्यों नहीं जाती?
सारा समय लेटे रहना ठीक नहीं!”
लगा जैसे विधी ने चुभाया हो कांटा,
आवाज़ आई”घर से अबअपना आसन हटा!”
जीवन के अंतिम पड़ाव का बचा रास्ता,
छोटी तकलीफ करती जहां हालत खस्ता!
घर था उसका मैं कह क्या सकती थी?
रजामंदी उसकी, मेरी उपस्थिति तोलती!
रोटी ही नहीं, हर सुविधा भी उसी की थी,
आज भाव उसके बता रहे थे मेरी स्थिति!
ऐसीअसहजता ने मुझे पहले भी घेरा था,
तब मेरी धात्री का घर खर्च में सहभाग था!
सही है, किसी का द्वार अगोरना नहीं शोभता,
था सामर्थ्य-योग पर, शायद नही योग,भोग का!
समय संग उड़ गया पंछी,उजड़ गया था घोंसला,
फिर जंगल में मोर नाचा करें, किसने है देखा?
बिसात इतनी ही है ,मैं बनी नियति का खिलौना ,
ऐश्वर्यशाली अस्तित्व का वजूद हो गया था बौना!
जं