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About the author
Book title
Book description
Preface
Acknowledgement
Dedication
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कवियित्री परिचय:
नाम – शमा सिन्हा
जन्म – ३-६-५४
स्थान – पटना, बिहार।
शिक्षा – एम.ए(अर्थ-शास्त्र)
एम. ए(अंग्रेजी)
एम.एड
कोमल और संवेदनशील मन की धनी,शमा सिन्हा की शाब्दिक अभिव्यक्ति बचपन से ही कविताओं के रुप में परिणत होने लगी थी ।
समय के साथ भाषा की परिपक्वता ने अपना प्रभाव बनाए रखा। इनकी रचनाएं, प्रकृति एवं समाज के विभिन्न परिपेक्ष से प्रभावित होती दीखती हैं ।
प्राकृतिक तत्वों को मानवीय गुणों से साकार रूप देकर, वृक्ष और पु्ष्प से मित्रवत वार्तालाप करना,इनकी विशेषता है।
इनकी रचनाएं सहज और सरल भाषा में गहरे भावनात्मक एवं अध्यात्मिक जनसंदेशो से ओतप्रोत हैं।
प्रस्तुत कविता संग्रह “मेरी काव्यांजलि”, शमा सिन्हा का अनुभव-काव्य-उत्सव है।
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2. पुस्तक का नाम: "मेरी काव्यांजलि"
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“पुस्तक समीक्षा”
पुस्तक “मेरी काव्यांजलि”, कवयित्री शमा सिन्हा का प्रथम कविता संकलन है। इनकी संवेदनशील रचनाएं विविध विषयों पर प्रभाव डालती हुई पाठकों के मन को सहज ही अपनी ओर खींच लेती हैं। बीते समय का अनुभव, मुरझाया पुष्प,सावन के बादल अथवा सीता का आत्म मंथन इत्यादि अनेक संदर्भ मन को लम्बे समय तक प्रभावित किये रहते हैं।
सभी शीर्षक पर की गई अभिव्यक्ति सरल और सहज शब्दों में है।प्रत्येक कविता अपने गहरे संदेश द्वारा, पाठकों को चिंतन करने पर बाध्य करती है।
उम्मीद है पाठकों को “मेरी काव्यांजलि” पसंद आएगी।
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प्रस्तावना
साधारणतया हम सब अपने इर्द गिर्द के दृश्य से नित्य प्रभावित होते हैं। कभी कभी हमारे चित्त पर उनका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है जो समय अंतराल पर भी हमारे मन को बांधे रखते हैं। ऐसे ही अनुभवों को शाब्दिक तुकबंदी का स्वरूप देकर मैंने अपने भावों को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। विविधता भरे विषयों पर काव्अभिव्यक्ति
“मेरी काव्यांजलि “, कविता संग्रह मेरी प्रथम भावनात्मक अभिव्यक्तियों का संकलन है।
मेरे दैनिक अनुभव से जुड़े होंने के कारण विविध विषयों पर आधारित है। उम्मीद है भाषा की पारदर्शिता मेरे विचार-विश्लेषण को आपके समक्ष रखने में सफल होगी।
प्रिय पाठकों से मेरा अनुरोध है कि मेरी त्रुटियां क्षमा करेंगें और मेरे इस प्रयास को स्वीकार करेंगे।
शमा सिन्हा।
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अभिस्वीकृति
सर्व प्रथम,”मेरी काव्यांजलि”, कविता संग्रह का साकार रूप ईश्वरीय अनुकम्पा से अनुग्रहित है। बिना उनकी कृपा के ना मेरे विचार पनपते, ना उनकी काव्य धारा बहती और ना ही बाकी व्यवहारिक तत्वों का साकार संयोजन संभव होता!
मेरे माता- पिता,स्व. सरोज सिन्हा एवं स्व.नागेश्वर प्रसाद सिन्हा, को अनेक नमन जिन्होंने मेरी छोटी-बड़ी सभी काव्य कृतियो में मेरे बचपन से ही आनंद लिया और मुझे प्रोत्साहित किया।
मेरे पति से स्व. डा.सुशांत प्रसाद सिन्हा, को नमन और अनेक धन्यवाद, जिनकी शिक्षा और सहयोग के बिना मेरी रचनाएं संकलित नहीं हो पातीं।
मेरी पुत्री सौ.पललवी, पुत्र चि. निशांत,मेरे विद्यार्थी एवं मेरे परिवारके समस्त सदस्य, जिनके सहयोग एवं दिशा निर्देश ने इस संग्रह को साकार करने में मदद की।
“Book leaf publishing” के सभी सहयोगियों एवं कर्मचारियों का धन्यवाद एवं आभार जिनके सहयोग से “मेरी काव्यांजलि” पाठकों तक पहुंच रही है।
उन सभी व्यक्तियों एवं तत्वों की भागीदारी जिनका आशीष मेरे साथ है,उन सबको मेरा नमन हैं ।
मैं हृदय से सबकी आभारी हूं ।
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समर्पित
पूज्यनीय माता-पिता,
स्व.सरोज सिन्हा एवं स्व नागेश्वर प्रसाद सिन्हा
और
मेरे पति,
स्व. डा.सुशांत प्रसाद सिन्हा
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“तुम ही कहो,कौन सी बात कहें?”
तुम्ही कहो, वो कौन सी बात कहें. हम।
सुनकर जिसे,और भी जिक्र करो तुम ।।
हवा मधुर मधुमास, होढ भी मुसकराते रहें।
हाथों मे हाँथ लिए, बस साथ चलते हम रहे ।।
तुम्ही कहो किन लफ्जों को कैसे चुनें हम।
मैं दिल की सुनु या. सिर्फ मन की सुनो तुम।।
या दोनो मिल कर ,एक ऐसा फैसला करें।
इक-दूजे की हर बात पर हामी भरते रहे ।।
तुम्ही कहो कि न यादों को संजीदा करें हम।
रुबरु होकर जिनसे न शरमाओ कभी तुम।।
कलियों की ताजगी लिए, खिले इत्र रंगे अक्षर।
खुशबुओं मेँ जिसके, लिपटे रहे हम चारों पहर!
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” उसने फिर टोका मुझको!”
अरे,तुम यहाँ खडे, किस को तक रहे हो?
“चौक गई मैं देख, सड़क किनारे हंसते उसको
चौक गई मैं देख, सड़क किनारे हंसते उसको।
आसमां में सूर्य चढा था,लेकर अपनी गर्मी को।
नीचे नीलाम्बर समेटे,देख रहा था वह मुझको।।
“मैं तो तुमक़ो भाता था,क्यों भूल गई हमको?
दिवाल के कोने से,उखाड़ लाई थी,प्रातः मुझको।।”
“दर्द मिला बहुत फिर भी घर बनाया तुम्हारे गमले को,
स्नेहवश अपनाया तुमने, आज क्यों भुलाया मुझको?”
कह वह बांवरा शरमाया,तकता रहा मुझे बांह पसारे।
मैं भी बस खो गई, देखती रह गई अपलक उसको।।
स्वीकृत नियति को कर,नमन किया ईशवर को!
बढ़ा दिया कदम मैंने, अपनी यात्रा पूरी करने को।।
मन मे उसकी यादों को भर ,तेज किया कदमों को।
“राह नई,निकल पडी हूँ,दुहराओ ना बीती बातें को!”
जाने क्या उसने कहा,जाने क्या समझाया मुझको!
पीछे छूट गया था वह, फिर भी मुडकर मैंने देखा उसको।।
समय बदल गया था,वह फूल मुरझा गया था।
नियति को कर स्वीकार, मैंने अपनी यात्रा रखा।।
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” समय की सच्चाई “
सब लौट रहे हैं अपने निज घर ,
थका मन पर उत्साह भरा है स्वर!
मंजिल पहुँचने के हैं जल्दी में ।
बच्चों संग, कुछ वक्त गुजारने!
समय ,पंछी सा नजर है आता ,
सूरज नित नये सपने है दीखाता !
शाम,लेकर खुशी है आती साथ।
पतंग बन लम्हे उड़ा ले जाती रात।।
घोसलें डाल पर रह जाते ,खाली,
होती शुरू फिर सफर की नई पाली!
नया सहर सारा कुछ है बदल देता ।
व्यस्त वह,पुनः रथ अपना है हांकता!
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“आंख चुरा कर!”
मन को भाता तेरा, गोप बालकों संग खेलना मोहन!
आंख चुरा कर,मार कंकरी टूटी मटकी से लुटाना माखन !
बड़ा मनोहर लगता जब मैया लाठी ले दौड़ाती तुझको!
छुप करआंचल में, कथा नई सुनाकर ठगता तू उसको!
तेरा खेल निराला, पशुधन का मालिक होकर चोरी कर खाता!
देेख छवि अपनी मणी खंभें में,झट नई कहानी तू गढ़ लेता!
चतुर कथाकार तू सबको , तर्क से अपने विवश कर देता!
बछड़े को खूंटे से खोल,पूंछ पकड़ आंंगन में दौड़ाता!
घबड़ाई गईया रम्भाती,तब झट उनको दूध पिलाता!
देख माधव का श्रृंगार मनोरम,वृन्दावन मस्त हो जाता!
नित नये तरकीब लगाकर,उलझाता भोली राधा को!
बजा मोहनी बांसुरी , नांच नंचाता गोकुल की गोपियों को!
“रंगीला लाला!अब रहस्य खोल दे!तूने सीखी यह कला कहां?
खेतों में मोती उपजे,ऐसा जादू तूने सीखा कहां?
रसीली तेरी बातें कन्हैया, रसिक रूपहला तू है जादूगर!
डूूब जाते हैं सब तुझमें,मुस्काता जब तू हैआंख चुरा कर!”
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यह कविता मैंने अपनी कल्पना के आधार पर लिखा है।
महाभारत युद्ध के बाद द्वारिका के लिए प्रस्थान करते समय,रास्ते से मुड़कर, कृष्ण जरूर वृन्दावन-मथुरा गये होंगे-नंद, यशोदा, गोपीयो से मिलने। राधा मिलन का काल्पनिक चित्र ,यहाँ मैंने अभिव्यक्त किया है।
“मिलन चिरंतन “
व्यथित चित, टूटा द्वारिकाधीश का धैर्य धन
स्थिर, रह सका न पल भर ,माधव का बेचैन मन,
श्याम-घन घिरे थे, फिर भी चल दिए पथ वृन्दावन।
राह तकते,ढूढती आँखे,उत्सुक थी किशोरी मिलन।
जमुना तट,वट छैया देख,पूछा “क्यो हो इस हाल में ?”
“आह, श्याम आये आज,फिर क्यो हमसे नेह जोड़ने?”
प्रेम आतुर हो झाँका नंदन ने,लली के विव्हल नैनो में ।
चंचल चितवन, बांह थाम,ले चलें राधा को निधि वन में।
वह निश्चेष्ट ,सहमी हुई,बढा रही थी अपने धीर कदम।
बैन न थे कहने को ,संजोये थे दोनों ने अथक अपनापन।
भींग गया अंग वस्र ,व्यथित हृदय से बहा जो अश्रू धन।
अस्त सूर्य, मध्यम प्रकाश बह रह था मधुमय प्रेम पवन,
देख छटा, रात्री उतरी, सितारों जड़ित चुनरी पहन।
स्नेहिल कर से ,माधव ने किया रौशन तारा एक चयन।
लगाई उसकी बिंदी माथे तो, भींगे गये दोनों के नयन।
रुक न सका नीर आँखों का,कटि रात्री बिना शयन।
हाथ थाम,एक दूजे को तकते,हुआ न शब्द सम्भाषण।
मुग्ध रात थी देख, प्रेमी युगल हृदय न अब था बेचैन,
अद्वितीय योग ,समझ लिया दोनों ने, एक दूजे का मन।
ऐश्वर्य आत्मग्यान का पाकर ,समृद्ध हुआ दो अन्तर्मन,
मुक्त हुई अभिलाषा, स्थिर समभाव, अर्थ हुआ स्थापन।
विरह- मिलन,जन्म -मृत्यु, सब पचं तत्व का है रुदन!
संयोग चिरंतन अद्वैत हुआ, बन गये दोनों अद्वैतम!
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“करवाचौथ “
स्नेह रंजित अनुपम है यह सुहाग त्योहार ।
भरा जिस में त्याग- समर्पण-निर्मल प्यार ।।
दीर्घ काल का साथ, दो आत्मा होतीं समर्पित।
जैसे यह धरती और चंद्रमा इकदूजे को हैं अर्पित।।
कार्तिक माह के चौथे दिवस को चांदनी जब आती।
पैरों में बांध पैंजनी,तारो जड़ी चुनरी चमकाती ।।
भर कर अंंजली पुष्प-पत्र-जल करती अर्पण।
हो जाता तृप्त नारी-मन,पाकर प्रेम सजन!
सफल होता पूर्ण दिवसीय निराजल व्रत त्योहार ।
बांधता दोनों को करवाचौथ,अखंड संबंध अपार ।।
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“मुस्कान “
परिस्थिति कोई हो,सहज देता यह सबका समाधान ।
“अहंआनंन्दम”,रंग देता चारो दिशा सम्पूर्णआसमान।।
दूरी सारी मिट जाती,अपनेपन की सजती है होली।
रंगोत्सव चिबुक खेलता,आखें बोलती प्रेम की बोली।।
अपने में छुपाये रखता,यह जाने कितने गमों की रोली।
इसका मूक मधुर संगीत बनाता दिल वालों की टोली।।
पल भर मे ही यह कह डालता बातें कितनी अनबोली।
जैसे कर रहा हो वह अपनी किस्मत से मधुर ठिठोली।।
एक बार में कर जाता,सबके संदेह-दृष्टि निरूत्तर ।
बड़ता है प्रभाव इसका, समय संग दिनोंदिन निरंतर!
आभा इसकी इतनी मनोरम, फट जाते बादल काले।
उदित दिवाकर फैलाता मयूूख,सजीले और सुनहले।।
बिना लिए कुछ, लुटाता सबके बीच कुबेर का खजाना!
सजा मुख पर मुस्कान सम्भव है सर्व संसार जीतना!
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” “पुनीत नींव निर्माण “
दीप जलाओ,नगर सजाओ,शुभ घड़ी ,पुनीत है त्योहार।
उदित सूर्य कर रहा आलोकित ,अपने राम का दरबार।।
विशवास को मिला हमारे , अखंड अनोखा वह आधार ।
सरयू तीर, विशाल विभूति,अपने राम का हो रहा त्योहार।।
सत्य सनातन वैदिक सपना, हिन्दुत्व हुआ आज साकार ।
एक सूत्र बंध, करें प्रणाम अपने राम को हम बारम्बार।।
असाधारण यह मंडप , प्रदीप्त दीप अखंड-आकार।
भर उमंग चलो मिलने,अपने राम से सुरसरि के पार।।
मची धूम ,हो रही अयोध्या में , श्रद्धा की अमृत बौछार।
शुभ सुरभित रंगीन पुष्प सजाओ अपने राम के द्वार।।
ला रहे हैं कंधे पर अनगिनत सुदूर दर्शनार्थी,भक्त कहार।
स्थान दिखा दो,लगा जहाँ,अपने निश्चल राम का दरबार।।
उच्च स्वर में गूजं रहा है मधुर उतसव संगीत मलहार ।
होगी सिद्ध मनोरथ सबकी,अपन राम का पाव पखार।।
विविध भोग रुचिकर चढ़ाओ, व्यंजन बना अनेक प्रकार ।
स्वीकार करें अपने राम तो,सबका स्नेह- श्रम होवे निसार।।
राह सवारू, छिड़को गंगाजल, गुंजित हो रहा ओंकार ।
हो रही तृप्त आत्मा सबकी,अपने राम के चरण पखार।।
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“अमावस्या का दीपोत्सव”
जागती रहती है आस,आयेगी जरूर चांदनी इक दिन ।
खो जाए चांद कितने ही गहन काले बादलों में होकर लीन।।
प्रभा के साथ होता है नाश फैैलते अंधेरे का धीरे-धीरे।
बच नहीं पाती हैं श्वास,आकांक्षी रावण के मन तीरे।।
लक्ष्य को संघान कर धर्म-तप-रत राम ने किया प्रयाण।
सीता के सतीत्व पुंज से उदित हुआ साक्षी-प्रताप-बाण।।
जगमगा उठे दीप,हर्षित हुए अयुध अग्रज, प्रजा और सेवक,
हनुमान,लक्षमण संग लौटे सीता-राम, दीपावली मनी अनेक !
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“सपनो का जीवन “
कल्पना और अपेक्षा से भरकर बनाउंगी तस्वीर ।
सुखमय जीवन और मनभावन सुधार की तदबीर।।
चुन चुन अपराजिता, हरश्रृंगार,भर खुशबू रंग-अबीर,
पूर्ण करूंगी अधूरी मैं वह अपनी कल्पना की ताबीर !
श्यामल आकाश को मै कुछ ऐसे हिस्सो में बांटूंंगी।
पुष्पित कुंज-गुच्छियों सा इंद्रधनुष से रंग डालूंगी।।
आधे मे शरमायेगा सूरज,प्रभाति संग कुहुकेंगे बादल ।
बाकी में नाचेगा चांद,साथ चलेंगें तारे पैदल।।
रसमलाई,गुलाब-जामुन,जलेबी मिल,उकेरेंगीं रंगोली।
महफिल में होंगें बस दो,मैं और मेरी बचपन की सहेली।।
एक बार फिर से अलमस्ति अपनी, आयेगी दोबारा।
खट्टा मीठा स्वादिष्ट पाचक हम खायेंगे बहुत सारा।।
सोमवार के साथ ही आयेंगें दोनों,शनि और रविवार ।
प्रति दिन,पूरे साल, खुशियों से भरा रखेंगे अपना परिवार।।
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“रघुवर को सिया का पत्र”
मेरे रघुवर,आपको निवेदन है,सिया का प्रणाम !
“सिया-राम” की इस जोड़ी का बनाये रखना आयाम।
मात पिता के वचनों का पालन हमने साथ निभाया!
जिन आदर्शो को प्रजा-राज्य सुख-आधार बनाया!
संकट में सत्य-समर्पित व्यवहार हमने निभाया!
भ्रात-सहिषणुता ,सेवक के प्रति प्रेमधर्म अपनाया!
बना रहे मधु-रस रजिंत यूंही समाज का हर नाता!
ज्योति अखंड कर्तव्यनिष्ठा की,भारत रहे करता!
यूंही बनी रहे, सिया-राम की जोड़ी अखंड,सबकी प्यारी!
भारत को दें स्वस्थ्य-सौहार्द-संतोष, मांगती यही जनक दुलारी!
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“अकेलापन “
खुद को अन्तर्मन से जो मिलवाये।
अनुभवों को सुलझा कर समझाये।।
लेेकर भूली बिसरी याद जो आ जाए।
मिलते ही मिठास भरा अपनापन दे जाये।।
कितना प्यार भरा है इसमें,कैसे समझाएं?
वक्त के घावों को धीरे से सहज सहलाये!
अपनों की कद्र, परायों का मान बढ़ाये।
जंग जीतने के कई रहस्य हमें बताए।।
हार को हटा, जिन्दगी में रस भर जाये।
स्वाभिमान भर कर अनेक विकल्प दिखाए।।
भरकर धैर्य हृदय में, खुद को प्यार करना सिखाये।
देकर असीमित सौहार्द,”अकेलापन”अपना हो जाये।।
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“आशीर्वाद “
महिमा नापी ना जा सकती,ऐसा अमोल है होता आशीर्वाद,
असंभव को भी संभव करता,पाकर इसे सभी होते कृतार्थ !
देव,ॠषी ,नर और असुर, इससेे सभी बलशाली हैं बनते,
जागृृत करती यह शक्ति अनूढी,अतुुल वीर हम बन शत्रु पछाड़ते!
करती पूर्ण सबकी कामना ,शगुन भी इसमें है नित दर्शन देते,
“इक्ष्वाकु-वंशज आशीष”जैसे विभीषण को लंका नृप हैं बनाते!
आशीर्वचन श्री राम का पाकर लक्षमन ज्यों हुए सनाथ,
रघुुवर नाम उच्चारित तीर अविलम्ब हर लिया प्राण मेघनाथ!
काज सम्पन्न होते मंगलमय , देते जब अग्रज हृदयाशीष ,
शुभदायक होता सब अवसर, अर्जन को आशीष,अनुज रखते चरणों में शीश!
हनुमान बने बली, शिरोधार्य कर पवन अंजना रज-पाद,
दुर्योधन का बल उपजा,सती गांधारी ने जो दिया आशीर्वाद ,
कष्ट हरता ,सुख- सौभाग्य बढ़ाता आशीर्वचन बड़ों का,
बन कर रक्षा कवच,आयुष्य अखंंड जगाता सबका!
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“जाड़े की रात “
घर मे त्योहार सा उमंग भरा माहौल था छाया,
मुन्नी माई के पास बेटे का टेलीग्राम था आया!
दो रात की रेल सवारी करके,बेटा पहुंचा मुम्बई।
खुश देख छोटी बहन को, नांचने लगा नन्हा भाई।।
” मिल गई है मुझे नौकरी!”खबर जब चिट्ठी लाई।
“जाड़े की छुट्टी में सब जायेंगे!”,मुुन्ने ने शोर मचाई ।।
कंबल की भी संख्या कम धी,फटी हुई थी रजाई ।
“हम सब साथ नही जा सकते!”मां ने चिंता जताई।।
“रात में जब पड़ती है ठंड, लड़ते हो सब खींच चटाई।
आस पड़ोस में होगी खिल्ली,रिश्ते मे घुलेगी खटाई ।।
बीच रात में पापा उठकर करेंगे सबकी बहुत पिटाई!”।
सुनकर ऐसी बातें ,सबके चेहरे पर गहरी उदासी छाई।।
बोली मुन्नी “फिर दे दो हमको भैया के हिस्से की मलाई!”
तभी बजी फोन की घंटी,भैया की आवाज पड़ी सुनाई,।।
“छुुक- छुक गाड़ी से सबको लेकर आ जाओ,पप्पा-आई।
बड़ा मस्त है मौसम यहां!ना चाहिए कंबल और ना ही रजाई!”
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“मां का जगराता”
मैं आई तेरे द्वारे मां,लेकर अपनी लंंबीअर्जी
संंग लाई हू सजे थाल में तेरी रंंग-जवा चुनरी!
आज मुझेअपना लेना मां,मन ने आस लगाई !
तेरे ही दर पर सबने मां,मनसा-ज्योत जलाई!
हर पल मेरे साथ तू रहती,सुलझाती कठिनाई,
अखंंड दीप तुम्हार जलता,रोशनी सबने पाई!
महिषासुरमर्दिनी हो तु ,शुंभ ,अशुंभ को तारी!
गलतियां सारी माफ करो मां,मैंने गुहार लगाई !
पंच तत्व की काठी मेरी,हो रही बहुुत कमजोर
तेरी दया के बगैर मैया,होगी नही मेरी भोर!
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“प्रभु, सुन लो बिनति!”
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बना दिया है अपना अंश मुझे,
दिया वह सब अभिलाषित गुण,
फिर क्यों नहीं सम्भव वह सब ,
जो चाहता प्रति पल मन अब?
सशक्त शरीर क्षीणकाय रहा बन,
स्मृतिह्रास अब हो रहा क्षण क्षण,
आस सुहास समेटती दुर्बलता कण,
मूक दृष्टा बन, निहार रही मैं सब।
रुदन से ही होता है यह कथा प्रारंभन
नवजीवन पर्व बनता,शिशु का मंगल क्रदंन
हर्षित मात पिता,होता है गुंजित कुल -कुंजन
अवतरित मानव बनता,पूर्ण परमात्म स्पंदन!
श्री सशक्त रहे अब भी,सत-आत्माऔर तन,
निर्मल सहज रहे,पुरस्कृत यह यात्रा जीवन,
मालिक, रख लो बस इतना सा मेरा मन ,
प्रार्थना स्वीकारो ,अरज रहा यही कण कण!
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“प्यार का बन्धन”
पुकारो प्रेम से ,कहो ना उसे,बंधन!
वह तो बना है मेरे हृदय का स्पंदन !
मासूमियत गर्भित वह महकता चंदन,
करता मन जिसका प्रतिपल वंदन!
तुम पास रहो या बस जाओ मुझसे दूर ,
गूंजती रहती तम्हारी तान सुरीली मधुर।
धड़कते श्वासों में बसे हैं तुम्हारे ही सुर,
मेरा जीवन बना जैसे राधा का मधुपुर!
क्या नाम दूं इसको, यह रिश्ता कैसे समझाऊं?
प्रतिपल साथ मेरे, मग्न मैं इसको ही निभाऊं।
“खुशियां तुम्हारे चूमें चरण!”मै गीत यही गाऊं,
तुम पर ही अपना सर्वस्व न्योछावर कर जाऊं!
ना इच्छा,ना अधिकार ,ना है कोई अब कामना!
बस हम रहें जहां भी यह रिश्ता सदा रहे बना!
है विश्ववास,साथ यह सदा रहेगा सबसे अपना,
तुम प्यार हो मेरे! बंंधन नही,मीत मेरे मनभावना
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“परछाई”
कहता जग,दिया नारी को उसने ही संंरक्षित जीवन है!
समझाए कोई निष्कर्ष नही उनका यह सही है!
भूल गया कृतघ्न वह कैसे,नौ महीने गर्भ काल के?
क्या श्वास चल सकतीं पुरुष की स्वतंत्र,बिना उसकी काया के?
जिसने लाया संसार में, महिमा जन्म धात्री की है!
सूरज -चांद -सितारे,सबका परिचय वही देती है!
अंधेरे मे रह कर स्वयं, शक्ति जीवन में भरती वही है!
सत्य यह स्वीकार करो,प्राण संरक्षित उसी से हैं!
बढ़ा कर आगे कदम हमारे,स्वयं हमारे पीछे चलती है,
स्नेह-अंक समाये उसके, हम मां की ही तो परछाई हैं!
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“तू नही सर्वश्रेष्ट ,ऐ मानव!”
गजब का संस्कार, ये धरा के फूल रखते हैं!
मस्त मौजें-नशा की’डुबकी लगाते रहते हैं!
खबर खुद की न होश,हाले- हवा की लेते हैं!
जब चाहा,बाहें पसार पंखुडिया बिखेरते हैं!
सुख का दुःख का,इनको कभी शिकायत नहीं,
बसंत या ग्रीश्म की बेमुरव्वत बेरुखी हवा भी,
जज्बात रहते,मधुर, नित स्थिर,श्रावणी से ही
अल्हड़ से मुस्कुराते मिल जाते हैं बंजर मे भी!
देख इन्हें, जलने लगता है सूशुप्त मन भी!
कहो क्यों, सर्वश्रेष्ठ देव-कृपा-पात्र मनुज ही?
तृषित,तडित,काम-मद-लोभ अविवेक रंजित
संचित सुख मुट्ठी बंद, लेता श्वास अतृप्त ही!.
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“ऐसा क्यों होता है?”
क्यों, कभी कभी दुआ भी
गलत मांग लेतें हैं हम!
खुद को ही बस, जीत का
हुनरबाज मान लेते हैं हम!
सामनेवाले को हराने में,
खुद ही हार जाते हैं हम,
और गम को छुपाने में,
सबकुछ बता जाते हैं हम!
……………
वो क्या कहेंगें, हम पर हसेंगें,
यही विचारते रह जाते हैं हम!
वो भी सोच सकते हैं, यह क्यों
भूल जाते हैं हरदम!
उन्हें भी, वह सब दीखता
है,जिसे नजरअनंदाज कर देते हैं हम!
खुद को समझदार, उनको ही नासमझ लेते हैं हम।
…………..
सबके साथ यही होता है या
सबसे होशियार हैं हम?
वक्त का यह तकाजा है या
उम्र की ढलान पर हैं हम ?
रेत की लकीरें मिटाकर,नई
रेखा खींचना चाहते हैं हम!
देखें, कोई और भी,है या
अकेले खिलाड़ी हैं हम?
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“ओ अश्रृंखल बादल!”
मकर रेखा से उत्तर दिशा में कर रही थी अविका गमन,
तभी बादलों के बीच पहुंच, करने लगा रवि रमण ?
बसंत आया ही था कि नभ पर हुई शयामला रोहण!
“हितकर नही होता इस वक्त मेघों का जल समर्पण !”
कह उठी धरा उठा हाथ,अपनी हालत श्यामल मेघ से।
पर वह उच्चश्रृंखल करने लगा मनमर्जी बड़े वेग से!
तेेज हवा कहीं,द्रुत पवन बवंडर,पड़ने लगे तुफान संग ओले!
“अरी,ओ हवा क्यों आई तू बन सयानी सबसे पहले?
तेरे कारण ढका मेघ ने,आदित्य को,ओढ़ा कर दुशाले!
बरबस बिजली को चपल चमकना पड़ा सबके अहले!
आ रही थी खेलने सरसों , नन्ही धनिया के संग होली।
गिर गयी पंखुड़िया ,हताहत हो गईं नन्ही पत्तियां सारी!
थी तैयार थरा, मनाने को सब्ज फसलों का त्योहार,
बेमौसमी बादलों ने कर दिया सबकी सारी तैयारी बेकार!
हुआ पर्व का उल्लहास फीका,चिंता ने बच्चों को घेरा!
“पानी घुले रंग लगायें किसे,करें रंगीन किसका चेहरा?”
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“मैं ढूंढ रही अपनी वाली होली!”
कहां छुुप गई वो रंंगीली प्यारी होली,आती जो बन अपनी,
लेकर संग हुल्लड भरी बाल्टी , लाल- हरी नटखट सजनी?
हमें भुलाने , मां हाथों में रखती,दस पैसे वाली पुड़िया कई,
अबरक चूर्ण मिलकर जो बन जाता,चमकता रंग पक्का सही!
हम शातिर बन इकट्ठा करते, बाजार में आई नई तकनीकी,
भैया, दीदी तब काम आते,पोटीन की बनती लेप चिकनी!
जिसने हमें गत वर्ष डंटवाया,विशेष उसके लिए रखी जाती!
चेहरा साफ करने में, महोदय की हालत बहूूत दयनीय होती!
मिल जुल कर सभासदों की,किसी शाम हम कर लेते गिनती,
होली के लिए, चयनित होने को नेता करते हमसे मीठी बिनती!
किसी तरह रुसा फुल्ली में,बनती हमारी भी एक बाल मंडली,
मुखिया करता निश्चय, किसे लगेगा रंग, किसे पोटीन कजली!
जिसने ज्यादा किया था तंग हमें,पहले उसकीआती बारी ,
नेता के पीछे,ढोल बजाते चलते हम, लिये रंग बाल्टी बन प्रहरी।
सजा प्यार-उमंग-आनंद पहुचते उनकी चौखट,तोड़ने दुश्मनी,
फाल्गुनी बयार संंग, गीले रंग से नहलाते ऐसा,लगती उनको कनकनी!
“कर लो आंखें बंद” चुुपके से गालों पर सखी का रंग लगाना!
भुला ना पाये आज तलक भी, दूर से उसका मिलने आना।
सुबह का रंग अभी थोड़ा ही उतरता,कि हम चल देते खेलने अबीर,
पर रंंग लगे हाथों से खाया पकवान,डालते मदहोशी की लकीर ।
भूला नही,शिवालय में दादा- दादी का गीला गुलाल छिड़क,देना आशीर्वाद ,
उनसे दो रूपये पाकर, आनंद विभोर मन करता आह्लाद !
कई दिनों तक,अंदर बाहर,हम घूमते लेेकर लाल हरी निशानी,
देख सबकी भृकुटी तनती, अम्मा-बाबा की सिकुडती पेशानी!
“ऐसा भी क्या खेलना होली,रंग ना जिसका छूटे सप्ताह दिन!”
“होली है भाई,होली है!”उन्हे अनसुनी कर, हम करते मस्ती ,रुठे बिन!
मस्त गुजरते दिन महीने,कहते गाते बीती अपनी होली की गाथा,
आस हमारी तब पूरी होती,नव वर्ष पुनः जब होली लाता।
रसभरी-पुआ,कचौडी, दम- आलूकी खुशबू से भर जाता आंगन!
सखियों के घर,सखियों के संग, मीठी ठंडई करते हम पारण!
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“सीता का प्रश्न”
दीपक की प्रज्वलित शिखा संग सगुण मुखरित यौवन ,
मधुर कर रहा था दीपावली काअयोध्या में पुनरागमन
लव -कुश को समर्पित प्रजा-पोषण राज सुरक्षा पालन।
पूर्ण धरा धर्म स्थापन कर,शेष शैया विराजे थे नारायण
अनुकूल न थी श्वास, सिसक रहा जैसे नेपथ्य आवरण
क्षुब्ध, बना था शेष शैया क्षीरसागर का शान्त वातावरण
अप्रसन्न,अश्रुरंजित क्षीण ,मुदित न था अष्टलक्ष्मी मन।
गम्भीर था,चंचला का विलक्षण मृदुल सौंदर्य चितवन।
लक्ष्मी के पलकों मे ठहरे हुए धे असीमित अश्रु कण
स्थिर बनी वह बैठी थी,पर धीर हीन सी ध्यान मग्न !
आज अचानक एक आक्रामक निश्चय उठा उनके मन
प्रश्न पूछने का प्रानप्रिय से,था उसकाअटल बना प्रण!
क्षीर सागर की लहरे उठ रही थी ,लेकर एक तूफान
छुपी मनोव्यथा जिव्हा आसीन,वचनो का यात्रा प्रयाण,
जैसे चढी प्रत्यंचा पर लेकर लक्ष्य,असह्य था वेदना बाण
करूणार्द्र नेत्र बोझिल,निष्प्राण था गौरा विहंगम प्राण!
गम्भीर, बैठी सोच रही थी,नारायणी स्वामी के पास,
कुन्ठित मन में क्रोध भरा था,प्रिय विछोह का त्रास!
“क्योंकर नही प्रभू को हो रहा मेरी भावना का आभास ?
क्यों हुआ हमारे प्रेम बंधन का ऐसा विघटनकारी ह्रास?
जिस राम नाम मात्र से होता जन्मों का पाप नाश ,
सदा शौर्य से जिसकी गूंजती, धरा और आकाश ,
माया वश बंधा जो,मृगनयनी वैदेही वरमाला पाश ,
विस्मृत क्योंकर किया,चित्रकूट का मधुर सहवास?”
तोड़ खामोशी मुस्कुराये ,बोले मायापति महा प्रवीण,
“हे प्रिय, बोलो क्यों है तुम्हारा कमलनीय मुख मलिन?
किस कारण हुआ मनोहर स्मित मुस्कान विलीन?
बिन तुम्हारे,हो रही पीड़ाअसह्य और मै शक्ति विहीन। “
टूटा बांध,रह न सकी चुप तनिक भी,वह बोल पडी,
“आती हैं आपको, करना भाव भरी बातें बहुरंगी बडी,
दिया क्यो वनवास जब करूण प्रसव वेला थी खड़ी?
समझा न दर्द, मिले न क्यों मुझको ,उस पल, दो घड़ी?”
न्यायाधीश बन जग- दोष-आरोपित अहिल्या को तारा
चरण रज छुला कर, क्षण भर मे ही,वैकुण्ठ द्वार उतारा।
चख,वृद्ध भीलनी शबरी जूठन,उसे भवसागर पार उबारा,
अग्नि अवतरित सीताको रघुवर, क्यो न तुमने स्वीकारा?
चपला चमकी ,बींध गये नर नारायण, दंश चुभन से
थे अचम्भित,”क्यों किए ये क्लिष्ट प्रश्न प्रिय लक्ष्मी ने?
युग पश्चात्, दीर्घ विछोह बाद हम दो हैं आये मिलने
क्यों बीती बातें लेकर, गहरे भंवर मे हम लगे फंसने?”
वह बोली,”भूलू मैं कैसे,असहाय पल,असह्य वह पीडा ,
हृदय विदीर्ण था लक्ष्मण का, दुख ने था उनको भी घेरा,
मुझ वियोग पीड़िता को दुर्जन वन में जब अकेला छोड़ा,
मुझ सी नारी ही समझेगी,दुर्भाग्य विडम्बना की क्रीड़ा!
हर बार जग में,विधा का होता क्यों विचित्र ऐसा खेल?
पौरुष अहंकार का, सौभाग्य संग होता है क्यों मेल?
राधा,अनुसुइया,कुंती,द्रौपदी,पर छाता समय क्यों अन्धेर
चांद की शीतलता को असमय लेते क्यों बादलघेर?”
अतिधीर राम तब बोले,”मुझसे हृदयाघात लगा तुम्हारे ,
क्षमा दान करो प्रिया, बिनीत बन इक्ष्वाकु खड़ा तेरे द्वारे।
अब न भूलूंगा कभी वो वादे,सभी सात वो अग्नि फेरे,
एक सूत्र निर्णय होगा, न्यायिक धर्म होगा सदा पक्ष में तेरे!
पुष्पवाटिका में प्रथम,विस्मृत चित ले समर्पित था हृदय हमारा,
उदासीनता का रहस्य समझा था, गुरू विश्वामित्र ने सारा
विधी का विधान हुआ पूर्ण, सबकुछ तुम पर मैने वारा
विश्वास करो, समक्ष तुम्हारे ,मैने था सब अपना हारा!”
कह कर श्रृष्टा,हो गये पल भर शान्त टठस्त आसीन ।
लगे देखने,श्री प्रियतमा के कमल नेत्र प्रेम विहीन
उठ रहा था तूफान, सागर-प्रवाह बन रहा था दीन,
विकल हो रहे थे प्रभू के सत्याग्रही,ज्ञान चक्षु मीन।
“स्मरण कराऊं मैं आपको क्या क्या,हे मायापति ?
आपने क्यों कर दी अपनी ही रचना की ऐसी गति?
भंवर बने प्रश्न घूम रहे मन में ,बना है बवंडर मति!
शंका सुलझायें, मुक्त होगी तबही विचार विकृति!
स्मरण, शुभ घड़ी पुष्प वाटिका की करें,हे अन्तर्यामी !
आत्म मिलन सींचित फूलों से थी रंगी मेरी चुनरी धानी!
व्याकुलता क्षणिक एक तत्व की,पढ़ आखों की वाणी,
धनुष भंग कर,ब्याह रचाया,क्या गढ़ने को विछोह कहानी?
त्याग महल अयोध्या का,साथ पार किया था सरयू ,
छ्द्म वेशित रावण, सीताहरण कर,उड़ा पुष्पक गति वायु
काटे दिन अनगिनत सोचती, आएंगे इक दिन मेरे रघु!
नियति कथा प्रपंच-पथ, तब बलि पडा था वृद्ध जटायु!
क्यों भेजा पवनपुत्र ,लेकर वह विह्वल प्रीती संदेसा?
सीताअधिष्ठात्री जिसमें,तुम्हारा हृदय क्या सच था ऐसा?
स्त्री विछोह विरह – चित् पुरुष का,कुहुक रहा हो जैसा!
व्याकुल विरही अधीर हो बसंत मे एकल पक्षी हो जैसा!
छोड दिया स्वामिनी ,त्यागा ना अयोध्या राज पाठ!
शपत ,चरणरज रंजित जीवन मे पड़ गई है गांठ ,
दे चुकी परीक्षा कई,ना जोहूंगी आर्य आपकी बाट!
मै प्रकृति प्राण-शक्ति,भीरू नही,मिट जाऊं पथ के हाट!
निर्जन वन में भी अगर मैं सहज कानन सजा हूं सकती!
दशरथ पौत्रों में कुलीन सभ्यता सहज सृजित कर सकती!
निस्सहाय संतानो को श्रेष्ठ सुसंस्कृत पुरूष बना सकती!
सीता नही अब अधूरी राम!,वह बन गई श्रेष्टतम परा शक्ति !
सहसा क्योंकर उपजी शंका ,निमित्त बना धोबी की खीज ?
अग्निदेव क्यों साक्ष्य बने थे,निरर्थक परीक्षा हुई सबके बीच ?”
असंगत भाव बढ़ा रहा था दूरी,स्वच्छ जल मे ज्यों उपजे कीच
किन्तु इकदूजे के अन्तर्मन स्नेहिल स्मृति लगन रहा था सींच!
विव्हल तब होकर बोले राम, थाम कोमलांगी सीता का हाथ ,
“तुम बिन मैं अधूरा,इस सत्य को है न कोई सकता काट,
करता हू प्रण समक्ष तुम्हारे,स्वीकारो बस मेरी एक बात,
मुझ प्रार्थी को, तुम श्रेष्ठ पथ प्रद्रशिका बन,दे दो शाश्वत साथ!”
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“बरखा बांवरी”
मचल मचल कर वह बांवरी,यूं बरसने आई है
ढक गया नीलनभ भी,धुंध श्याम छवि लाई है।
खो गईं डालियां, कलियां कोमलांगी झड गई हैं।
प्रीत अनोखी,धरा-गगन की,रास रंग की छाई है।
कतारों मे चल रहीं,रंगीली जुगनुओं सी गाडिय़ां ।
सरसराती, कभी सरकती, झुनझुनाती पैजनियां।
देखो कैसी रुनकझुनक , मस्ती संग ले आई है ।
सब पूछ रहे रसरजिंत हो, यह क्यों ऐसेे मदमायी है?
नांच रहा कोई, ऐसा कौन रंग बरसाई है
छुप रहा कोई-पत्तियों तले ना ये जा पाई है
गा रहा कोई- यूूं राग तरिंगिनी बन यह आई है
रोको न इसके कदम-ले जाने इसे आई पुरवाई है।
कडकती बदली से चुरा, श्यामल चुनरी लाई है!
नटखट नवेली चुपके से बिजली बिंदी चमकाई है
उडते हुये परिंदों के पंखों मे जा, यहसमाई है
यहाँ छमछम यह करती, वहाँ रुनझुन बरसाती है
रवि किरणों के संग कहीं ,अधीर हो मुस्काती है
कहीं लहरा कर चदरिया नीली , सपने कई सजाती है
हरी बनी वसुधा पर फिर रसीली फुहार बरसाती है।
कहीं मचलती, कभी उछलती, पीहर से यह आई थिरकती ,
मुदित मन -कुसुमी तन से,रूक रुक कर है किलकारती ।
कहती सबसे कानों में,”लाई पिया-स्नेह भरा आंचल अपार,
छींट छींट, बांट बांट कर, सजा दूंंगी मैं सौगात अम्बार
घर आंगन उन सबका,देख रहे जाने कबसे जो बाट मेरी
खेतों और खलिहानों मेंं मिल, सौभाग्य रोप रहे हैं क्यारी !”
सहसा क्या हुआ इसे, धीरे से फैला कर श्यामल ओढनी
“अगले बरस फिर आऊँगी “,कह नयी दिशा को वह चल दी।.
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“जरा बचके!”
हो रहा समय, मिलन सूर्य -संध्या का,
तारों को बांंहों में समेट,छा रहा अंधेरा।
“जरा बचके रखना कदम ओ मेरे सजना!”
दे रहा आवाज, क्षितिज से मल्लाह नांव का।
पता नही है दूर कितना अपना वह किनारा,
भला यही,मध्यम धारा के संग बहते रहना!
“जरा बचके दूर,नदी के भंवर से रहना!
पतवार पकड़,दिवास्वप्न में तुम ना खोजाना!”
यह सफर है,बस हिसाब लेन-देन का,
“जरा बचके करना! है व्यापार कर्म का,
यह रिश्ता है बस अधिक-शेष गणना का!
बेखबर!फिसले ना यह अनमोल नगीना सस्ता!!!”
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“भैया दूज”
बचपन की कुछ प्यारी यादें,आज आप से करती हूं साझा।
जीवन होता था सरल बहुत तब,पारदर्शी थी व्यव्हारिकता !
परिवार हमारा साथ मनाता त्योहार ,एक ही आँगन में जुट,
सबको यही चिंता रहती,कोई भाई बहन ना जाए इस खुशी से छूट!
भाई दूज पर मिलता पीठा – चटनी,और फुआ बताती बासी खाने की रीती।
चना दाल की पूड़ी, खीर, आलू-टमाटर-बैगन-बड़ी की सब्जी!
गोबर से उकेर कर चौक,कोने में सजाते पान-मिठाई- बूंट ।
दीर्घायु होवें सब भैया हमारे,हम बहनें पूजती शुभ “बजरी” कूट!
चुभाकर “रेंगनी” का कांटा,सभी जोगतीं काली नजर का जोग टोना।
फिर जोड़ती आयु लम्बी,मनाती भौजी का रहे सुहाग अखंंड बना!
यम-यामिनी,नाग-नागिन ,सिंधोरा बना कर चढ़ाती फूल पान।
सूरज चांद को मना कर कहती”करना मेरे भैया का कल्याण !”
करती प्रार्थना,देव स्वीकारें पूजा कार्तिक शुक्ल पक्ष दूज!
“भाई बहन का प्रेम अखंंड हो!”मांगती विष्णु-शिव-चतुर्भुज!
भैया बने वज्र, देकर आशीष घोटवाती पूजित साबुुत” बजरी”!
“भाई ही सिर्फ नेग क्यों दे?” भैया को लगती यह बात बहुत बुरी!
चतुराई में वो भी कम ना थे, चुनते कुछ ऐसी कुटिल तरकीब ,
बड़े नेग का दिखा सपना कहते “नौकरी पाने के दिन हैं करीब!”
अच्छा लगता नोंक झोंक कर ,हमें नित उन्हे उलाहना देते रहना,
नेग से ज्यादा उनसे था लगाव, और उनके प्यार से अपना आंचल संजोना!
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समस्त भारतीय भाई बहन को,गणतंत्र दिवस की अनेकानेक बधाई ।
“शुभदायक गणतंत्र दिवस “
“है उन सहस्त्र जाबाजों को बार बार प्रणाम, समस्त देशभर का,
साहस से जिनके है वजूद, हम करोडों हिन्द देश- वासियों का।
उठा झंडा,भर कर शक्ति से श्वास ,चरणो में मां की कसम का ,
नापते सहज पथ ,रक्षक इसके ,थाम तिरंगा जमीं से नभ तक का ।
” शीश, मां का ऊंचा रहे सदा,”ओढ़ कफन आह्वान है, इसके दुलारों का।
है खेलते जहां बच्चे शेरों से, देश है यह ऐसे वीर अहिल्या और भरत का।
हरआगंन मे है वास यहांअगणित शान्तिदूत,लौहपुरूष,झांसी की बेटी का।
देखना तनिक इसकी ओर ,है नही सामर्थ्य किसी माई के लाल का।
प्रत्यक्ष विराजे राम जहां है और सुरक्षा कवच है वीर भद्र लक्ष्मण का,
सदा सचेत समस्त नारी है जहां,रहेगा सदैव
सुरक्षित सम्मान भारतीय माटी का।”
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“काश!”
कदम जब भी उढते हैं
और रास्ते पर लोग दीखते हैं।
जाने क्यों,भ्रम सा हो जाता है,
उम्मीद से, आंखेंआगे तकने लगती।
न चाहते,ख्वाहिश सी जाग जाती है।
फिर से बरबस,ईक बेचैनी छाती है।
गुजरते काफिले में ढूंढने लगती हैं,
आस संजोए दो खुली पुतलियाँ ,
खो गए अचानक जो, उन्हीं को!
बिडम्बना,होढों को सीलती है।
रौशनी को, बदली ढाक जाती है।
आकांक्षा बरबस शीथिल होती हैं।
आस को, वह फिर से समझाती है।
उतना ही सच मानो ,जो हुआ हासिल
वक्त के पहले और हक से ज्यादा,
किसी को नहीं मिलता है कोई साथ।
सपनों को उम्मीद से, तो सब सजाते है,
पर साकार होते उन्हें कुछ ही ने दैखा है।
झंझोर कर मन मैंने, बरबस दूसरी दिशा,
रोक ली चाहत और पलावित कर दी मंशा।
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शूरवीरों को नमन!
शक्ति स्तम्भ को देखना है जिन्हें,सशरीर चलते हुए,
तो आकर,हमारे भारत की सीमा पर आपको देखले!
वीर- रक्त सिन्चित संताने, पग-पग सचेत ध्वजा लिये!
द्रृढता से जिनकी, पर्वत भी पाठ हैं नये नित सीख रहे ।,
सागर के ज्वार भाटे नई ऊचाईयों को है ,निरंतर छूते!
प्रशस्त लहरा रहा तिरंगा, हो आश्वस्त इन सींह- वीरों से,
थम जाता समीर हतप्रभ,देख पाषाण-बाजू शमशीरों के!
फूलों की तकदीरों में भी, उभर रहे हैं रग नय तबदीली के,
बढ रही ऊम्र उनकी,हारकर बिखरते नहीं वो अब जमीन पे!
मातृ नमन ,सिर ऊचां कर,कह रहा हिंद सारे संसार से –
“रक्षित द्योढी है हमारी!”,धरा-आकाश, गूंजती यही आवाज है!
“कीर्ति और मान वही, निखरता जिससे सर्वोच्च देश हमारा है!
राधा-सीता, कृष्ण -राम ,सबने दिया एक ही हमेंआदर्श है –
है कर्तव्य, भारत का धर्म और धर्म ही हिंद देश कर्तव्य है !”
जय भारत मां।
जय हिंद के वीर।
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“जय जय देवी खिचड़ीअन्नपूर्णा की!”
जय जय जय त्रिभुवन देवी खिचड़ी अन्नपूर्णा की!
अकाट्य महिमा इनकी,धरा-नभ-विस्तृत बहुत बड़ी।
।
संतोषी सदाचरण रखतीं,कहने को हैं सीधी सादी,
आग
तपाआलू-बैंगन-भरता,चमकाआखें,हैंपरोसती !
घृत बघार,घृत-सुगन्ध, घृत -श्रृंगार का जादू लहराती!
डोल जाते,सप्त ऋषी ,पाते इनकी महिमा लक्ष्मी सी!
सखा सहेली इनकेअनगिनत ,कर न पाता कोई गिनती,
अचार ,दही,तिलौरी ...अरे छोड़ न देना टमाटर चटनी!
गर्मी में सजता हरा पुदीना,जाड़े मेंधनिया पिसे सिलबट्टी !
कच्ची पिसी दाल मिलायें,संग गोभी-प्याज-मिरचा हरा!
गर्म सुर्ख कुरकुरे नन्हे पकोड़े , स्वाद सागर अपार दें बढ़ा !
खिचड़ी रानी स्वप्न-नृत्यांगना, ओढ़े चुनरी पीली हरी नगीने जड़ी!
इनकी छवि, सोये मन को भरमाती, बढाती पेट की बेचैनी बड़ी!
ऐसे भोग का क्या कहना ! लेलो अगर “जबान-कोड़े” की चटकार!
सजी थाल की रौनक होती दुगनी,जब पड़ती पापड़ की टंकार!
खिचड़ी महारानी का हिंडोला,रसोइये की है कला-कृति मनोरम!
एक थाल मे कुनबा जब खाता,”प्रभू प्रसाद” बनता यह अनुपम!
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” मां-तुम मेरे साथ हो!”
ऐ नारी, तुझमे ऐसी कौन सी नई वह बात विलक्षणहै,
हर बार, पल पल, प्रतिछन तू बन जाती कुछ खास है??
बिजली कड़के बादल बरसे,पृथ्वी डोले,तू अडिग है
घोर अंधेरा छाये, तू धातृ स्थिर-स्तंभ हिम्मते-आस है!
स्नेह-अंक में भर,नौ मास,संरक्षित-पोषित नायाब किया,
तन मन सब मेरा अपनाकर,अटूट बंधन ही बांध लिया!
कटी नाल, हम रो दिए ,आंसू पोछ जाने क्या समझाया,
चुपके से फिर इक बार,मुझे प्रेम डोर से जोड़ लिया!
कहीं रहू, तुम्हें खोजती हूँ,कितनी भी उम्र क्यों न है गुजरती!
सफ़र के हर मोड़ पर, पकड़ कर उंगली, हूँ चलना चाहती!
यही सोच,तुम सदा साथ हो, रास्ते बीहड़ भी मैं तै कर जाती,
जानें वो कैसा बल है ,बंध कर हूँ जिससे संजीवनी पा जाति!
मातृ दिवस के सस्नेह बधाई !
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रे मन!
रे मन,तू ही तो है इक मेरा अपना।
तुझमें बसे कान्हा, अनमोल जीवन का सपना!
सुनता है इक तू ही तो,अनबोले मेरे बैन।
रक्षित तुझमें, मेरे हर भाव,विलक्षण तेरे नयन।।
बन कर मीत अनन्य ,करता है नित नूतन बात,
सहलाते सद्भाव जैसे तेरे मीठे हाथ!
रिक्त मेरे हर पल को मधु-कल्पना से है भरता।
नव पथ पर सम्भल कर,चलना तू सिखाता।।
नश्तर जब करते आहत तो बन साथी सहलाता।
दुखते हृदय तारों को,कोमल राग सुनाता ।।
दुखते कितने घावों को तूने है सम्भाला।
मोहन की बंसी बन, जीवन में अमृत है घोला।।
उमड़ती बेचैनी को ,धैर्य से !तूने ही तो है धो डाला।
मोहन की बंसी बन,जीवन मे अमृत है घोला।
तेरे बिन, रे मन! मैं आधी भी न रह जाऊंगी,
जो ना होगा तू संग मेरे तो, मैं श्वास भी ना ले पाऊंगी !
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