3
” “
दीपक की प्रज्वलित शिखा संग सगुण मुखरित यौवन ।
मधुर कर रहा था दीपावली काअयोध्या में पुनरागमन।।
लव -कुश को समर्पित प्रजा-पोषण राज सुरक्षा पालन।
पूर्ण धरा धर्म स्थापन कर,शेष शैया विराजे थे नारायण ।।
अनुकूल न थी श्वास, सिसक रहा जैसे नेपथ्य आवरण।
क्षुब्ध करुण बना था शेष शैया, क्षीरसागर का शान्त वातावरण।।
अप्रसन्न,अश्रुरंजित क्षीण ,मुदित न था अष्टलक्ष्मी मन।
गम्भीर उदास था,चंचला का विलक्षण मृदुल सौंदर्य चितवन।।
लक्ष्मी के पलकों मे ठहरे हुए धे असीमित अश्रु कण।
स्थिर बनी वह बैठी थी,पर धीर हीन सी ध्यान मग्न ।।
आज अचानक एक आक्रामक निश्चय उठा उनके मन।
प्रश्न पूछने का प्रानप्रिय से,था उसकाअटल बना प्रण।।
क्षीर सागर की लहरे उठ रही थी ,लेकर एक तूफान।
छुपी मनोव्यथा जिव्हा थी आसीन,वचनो का था यात्रा प्रयाण।।
जैसे चढी हो प्रत्यंचा पर लेकर लक्ष्य,असह्य था वेदना बाण।
करूणार्द्र नेत्र बोझिल,निष्प्राण था गौरा विहंगम प्राण।।
गम्भीर, बैठी सोच रही थी नारायणी, स्वामी के पास।
कुन्ठित मन में क्रोध भरा था,प्रिय विछोह का त्रास।।
“क्योंकर नही प्रभू को हो रहा मेरी भावना का आभास ?
क्यों हुआ हमारे प्रेम बंधन का ऐसा विघटनकारी ह्रास?
जिस राम नाम मात्र से होता जन्मों का पाप नाश ।
सदा शौर्य से जिसकी गूंजती, धरा और आकाश ।।
माया वश बंधा जो,मृगनयनी वैदेही वरमाला पाश ।
विस्मृत क्योंकर किया,चित्रकूट का मधुर सहवास?”
तोड़ खामोशी मुस्कुराये ,बोले मायापति महा प्रवीण।
“हे प्रिय, बोलो क्यों है तुम्हारा कमलनीय मुख मलिन?
किस कारण हुआ मनोहर स्मित मुस्कान विलीन?
बिन तुम्हारे,हो रही पीड़ाअसह्य और मै शक्ति विहीन। “
टूटा बांध,रह न सकी चुप तनिक भी,वह बोल पडी।।
“आती हैं आपको, करना भाव भरी बातें बहुरंगी बडी।
दिया क्यो वनवास जब करूण प्रसव वेला थी खड़ी?
समझा न दर्द, मिले न क्यों मुझको ,उस पल, दो घड़ी?”
न्यायाधीश बन जग- दोष-आरोपित अहिल्या को तारा।
चरण रज छुला कर, क्षण भर मे ही,वैकुण्ठ द्वार उतारा।।
चख,वृद्ध भीलनी शबरी जूठन,उसे भवसागर पार उबारा।
अग्नि अवतरित सीताको रघुवर, क्यो न तुमने स्वीकारा?”
चपला चमकी ,बींध गये नर नारायण, दंश चुभन से।
थे अचम्भित,”क्यों किए ये क्लिष्ट प्रश्न प्रिय लक्ष्मी ने?
युग पश्चात्, दीर्घ विछोह बाद हम दो हैं आये मिलने।।
क्यों बीती बातें लेकर, गहरे भंवर मे हम लगे फंसने?”
प्रयत्न के बावजूद,गहरे प्रश्नो की बेड़ी लगी थी कसने।।
विश्व रचयिता के मन में भी करुणा लगी थी बहने।।
वह बोली,”भूलू मैं कैसे,असहाय पल,असह्य वह पीडा ।
हृदय विदीर्ण था लक्ष्मण का भी, दुख ने था उनको घेरा।।
मुझ वियोग पीड़िता को दुर्जन वन में जब अकेला छोड़ा।
मुझ सी नारी ही समझेगी,दुर्भाग्य विडम्बना की क्रीड़ा।।
हर बार जग में,विधा का होता क्यों विचित्र ऐसा खेल?
पुरुष के अहंकार का, सौभाग्य संग होता है क्यों मेल?
राधा,अनुसुइया,कुंती,द्रौपदी,
पर छाता समय क्यों अन्धेर।
चांद की शीतलता को असमय लेते क्यों बादल घेर?”
अतिधीर विष्णु तब बोले,”मुझसे हृदयाघात लगामन को तुम्हारे ।
क्षमा दान करो प्रिया, बिनीत बन इक्ष्वाकु खड़ा तेरे द्वारे।।
अब न भूलूंगा कभी वो वादे,सभी सात वो अग्नि फेरे।
एक सूत्र निर्णय होगा, न्यायिक धर्म होगा सदा पक्ष में तेरे!
पुष्पवाटिका में प्रथम, संवेदनशील चित समर्पित था हमारा।
मेरी उदासीनता का रहस्य समझा था, गुरू विश्वामित्र ने सारा।।
विधी का विधान हुआ पूर्ण, सबकुछ तुम पर मैने वारा।
विश्वास करो, समक्ष तुम्हारे ,मैने था सब कुछ अपना हारा!”
कह कर श्रृष्टा,हो गये पल भर को शान्त टठस्त आसीन ।
लगे देखने श्री ,प्रियतमा के कमल नेत्र प्रेम विहीन।।
उठ रहा था तूफान, सागर-प्रवाह बन रहा था दीन।
विकल हो रहे थे प्रभू के सत्याग्रही,ज्ञान चक्षु मीन।।
“स्मरण कराऊं मैं आपको, क्या क्या हे मायापति ?
आपने क्यों कर दी अपनी ही रचना की ऐसी गति?
भंवर बने प्रश्न घूम रहे मन में ,बना है बवंडर मति!
शंका सुलझायें, मुक्त होगी तबही विचार विकृति!
स्मरण, शुभ घड़ी पुष्प वाटिका की करें,हे अन्तर्यामी !
आत्म मिलन सींचित फूलों से थी रंगी मेरी चुनरी धानी!
व्याकुलता क्षणिक एक तत्व की,पढ़ आखों की वाणी।
धनुष भंग कर,ब्याह रचाया,क्या गढ़ने को विछोह कहानी?
त्याग महल अयोध्या का,साथ पार किया था सरयू ।
छ्द्म वेशित रावण, सीताहरण कर,उड़ा पुष्पक गति वायु।।
काटे दिन अनगिनत सोचती, आएंगे इक दिन मेरे रघु!
नियति कथा प्रपंच-पथ, तब बलि पडा था वृद्ध जटायु।।
क्यों भेजा पवनपुत्र ,लेकर वह विह्वल प्रीती संदेसा?
सीताअधिष्ठात्री थी जिसमें,तुम्हारा हृदय क्या सच था ऐसा?
स्त्री विछोह विरह – चित् पुरुष का,कुहुक रहा हो जैसा!
व्याकुल विरही अधीर हो बसंत मे एकल पक्षी हो जैसा!
बस छोड दिया जनकनंदिनी ,त्यागा ना अयोध्या राज पाठ!
शपत ,चरणरज रंजित जीवन मे पड़ गई है गांठ ।।
दे चुकी परीक्षा कई,ना जोहूंगी आर्य आपकी बाट!
मै प्रकृति प्राण-शक्ति,भीरू नही,मिट जाऊं पथ के हाट!
निर्जन वन में भी अगर मैं सहज कानन सजा हूं सकती!
दशरथ पौत्रों में कुलीन सभ्यता सहज सृजित कर सकती!
निस्सहाय संतानो को श्रेष्ठ सुसंस्कृत पुरूष बना सकती!
सीता नही अब अधूरी राम!,वह बनी श्रेष्टतम परा शक्ति !
सहसा क्योंकर उपजी शंका ,निमित्त बना धोबी की खीज ?
अग्निदेव क्यों साक्ष्य बने थे,निरर्थक परीक्षा हुई सबके बीच ?”
असंगत भाव बढ़ा रहा था दूरी,स्वच्छ जल मे ज्यों उपजे कीच।
किन्तु इकदूजे के अन्तर्मन स्नेहिल स्मृति लगन रहा था सींच!
विव्हल तब होकर बोले राम, लेकर, हाथों में कोमलांगी सीता का हाथ ।
“तुम बिन मैं अधूरा,इस सत्य को है न कोई सकता काट।।
करता हू प्रण समक्ष तुम्हारे,स्वीकारो बस मेरी एक बात।
मुझ प्रार्थी को, तुम श्रेष्ठ पथ प्रद्रशिका बन,दे दो शाश्वत साथ!”