खिले पुष्पों को देख मैंने सीखा उनसे नई बात।
छोड़ अपेक्षा, डालों को देना अमित चाहत।।
किसलय से लेकर रक्त -रंग,दे देना उसको मात।
वह रह जाते हरित, फूल सजते रंग भरी पांत।।
गिनते नहीं कुसुम कहां खिले, बंजर या बरसात ।
पंखुरी की नस मे सजाते रेशमी धागा कात।।
उनके बीच फिर नित नूतन होती श्रृगारी बात।
आ जाती चुपके से तब ही, बिदा होने की रात।।
कल तक जहां खड़ी थीं सब, लिए सौंदर्य सौगात।
रंगविहीन निर्जीव हुई, किया मृत्यु ने जो आघात ।।
फिर भी वैसे ही बनी थी उसकी निस्पृह मुस्कान ।
देख उन्हें,मैंने भी तबसे सदा हंसते रहने की ली है ठान!