जीवन, पानी का बुलबुला

जीवन में संचित सारे सुख की लम्बाई है बस एक पल।

बारिश की बूंदों सी,पलक झपकते जाती मिट्टी में मिल।।

अभी अभी जो जन्म लिया इसलिए  ही वह था रोया।

इसलिए ही नये वस्त्र पाकर,तनिक ना वह खुश हो पाया।।

स्मृति पटल ने  चित्र साझा किये, अनेक पिछले जीवन के।

व्याकुल हुआ देख खुद को दौड़ते, हांफते, कराहते और रोते ।।

आर्त हृदय से  उसने पुकार कर “लौटा लेने”का किया अनुरोध।

पर उसका हो चुका था पदार्पण, सबसे बड़ा था अवरोध।।

बन्द हो गये थे दरवाजे सब, क्रंदन कर समझाया खुद को।

मां के स्पर्श ने ढांढस दिया उसके व्यथित मन विह्वल को।।

पिछले जन्म की बातें जब आहत करती, उसके चित्त को।।

मातृ स्पर्श का स्नेह पोंछ डालता,अविरल बहते अश्रु धारा को।।

समय के साथ मिटी स्मृति, पटल पर अंकित हुआ नया सपना।

भूल गया ईश-संदेश,लगा सीखने माया के आकाश में उड़ना।।

सत्य चिरन्तन, विस्मृत कर रहा भागता क्षणभंगुर माया के पीछे।

अल्पकालिक सुख की खातिर मायिक सपनो को नित सींचे।।

प्रतिस्पर्धा ने किया अपने चित को करुण वैमनस्यता से घात।

विजयी बन वह बैठा डाल, पर विरोधी छाये थे पात पात।।

सब समेट कर सम्राट बनने की चाहत ने ले लिया था सुख-चैन ।

था ना कोई मित्र उसका, सहिष्णुता से बोलता दो मीठे बैन।।

भींगा था उसका तन मन अहं में,पाकर उपलब्धि का पहाड़ ।पर था निरा अकेला,झेल ना पाया उफनती उदासी का बाढ़।

पर था निरा अकेला,झेल ना पाया उफनती उदासी का बाढ़।

चिंता में ही जीता रहा, नासमझ कर ना सका जीवन अमृत पान।

स्वास्थ्य, समाज सभी से चलने लगे, अनेक कठोर खंजर, बाण।।

शायद उसने आंका ना था,अपने पूरे जीवन की लम्बाई।

श्वास ने बढ़ायें ही थे कदम, तभी अजित-मृत्यु की बारात आई।।

स्वरचित एवं मौलिक।

शमा सिन्हा

रांची।

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