“उम्मीद का हश्र “

क्यों बार बार इस उधेड़-बुन में रहती हूं।

नई उम्मीद के साथ मैं राह निहारती हूं ।

इस बार शायद मेरा हाल तुम पूछोगे।

दुखती मेरी रगों को तुम सहलाओगे।

हाथों में लेकर हाथ हृदय से लगाओगे!

मेरी शिकायत तुम आज दूर कर पाओगे ।

हर बार अपनी ज़िद पर तुम अड़े रहते हो!

हर बार यूंही मेरी आरज़ू को मात दे जाते हो!

मेरी तकलीफ़ तुम पर बेअसर हो गई है !

क्यों वो,अपने वादे तुम्हें अब याद नहीं है?

मेरी पुकार तुम पर अब असर नहीं करती?

ऐसे ही मिटा गये तुमने सारी हस्ती हमारी !

इतनी जुदाई, फिर भी ना पूछा हाल हमारा!

लूट कर दिल मेरा  बिखराया वो मेला सारा !

स्वरचित एवं मौलिक ।

शमा सिन्हा

१०.१२.२४

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