हवा ने कहा मैं चलूं जिधर से
सहसा बदलूं मौसम मैं उधर के!
ठहर जाऊं मैं जहां थोड़ी भी देर,
मौसम विभाग के लगते फेर!
गर्मी से सब व्याकुल हो उठते
पीकर जल तब ठंडक पहुंचाते।
तपती गर्मी की धूप जब खाते ।
पहाड़ों की ओर दौड़ लगाते!
भर कर पेड़ों को रसीले फलों से
देता ढांढ़स, लीची और आम से।
प्यास ना खरबूज-खीरे से बुझती।
तरबूज की लाली काम ना करती ।
प्यासा गुल बिन खिले मुरझाता
सूखा पत्ता जमीं पर लोटता
देख इनकी बढ़ती व्याकुलता,
भर जाता हृदय करुण विह्वलता!
बेचैनी देख पृथ्वी पर, मैं रुक ना पाता।
बांह पसारे, मैं सागर ओर पलटता।
भरकर बादल से आंचल को लौटता ।
अपने संग लाता, छम छम करती बरखा !
झटपट बदल देता मैं मौसम का रंग।
मीठी बारिश करती धरती का मौन भंग।
हरे होते लहलहाते अंकुरित खेत के रंग
इतराती प्रकृति लग जाती बारिश के अंग!
मेरा यही है स्वभाव, मैं हूं मनमौजी!
लौटता उत्तर से बटोर ठंडक वहां की।
करता बौछार फल -फूल,साग- सब्जी।
देता आशीष सबको उम्दा सेहत की!
हूं हवा,बदलता हूं मौसम चारों दिशाओं की।
स्वरचित एवं मौलिक रचना।
शमा सिन्हा
रांची, झारखंड।
सागर प