यूं लगा द्वार का,जैसे किसी ने कुण्डा खटखटाया!
प्रातः कालीन बेला में, हो रही थी रात्री शरमा कर विदा।
दबे पांव से चल कर मैंने, “कौन है?”पवन से पूछा।
“शांंती ,चारो दिशा है छाई!”बोली मुझसे खामोश हवा!
“मिलने तुम से आया है कौन,जरा देखो पूर्व की ओर!”
नव दिवस का आनंंद मनाओ, बाग मचा रहे हैं शोर!”
अंबर हो रहा था रक्ताभ,बिखरे मेघों ने पहन लिया था मौर!
नयनाभिराम समा छाया था,देखना ना चाहा मैंनें कही और !
पहना रहे थे दीनानाथ, विशाल आकाश को साफा सुर्ख,
हाथों में थाल सजाये,भरकर धरा के लिए स्वर्ण वर्क !
अभी ना उभरी थी असमंजस से,कौतुकता चहुंओर थी छाई,
लगे दौड़ने श्वेत अश्व सात, देवरथ में तीव्र चंचलता आई!
गूंजा मधुुर कलरव चिड़ियों का,समृद्धी ने ऊंंची पुकार लगाई,
“निश्चेष्ट ना बैठो!यह पल ना गवाओं ,मैं झोली सबकी भरने आई!”
(स्वरचित कविता)
शमा सिन्हा
रांची।
20-12-23