जाड़े की धूप

"जाड़े की धूप"

मिलती जाड़े कीधूप हमें,काश अपने ही बाजार में!

होता इससे सबका श्रृंगार घर के सुुनहरेआंगन में!

फिर सबके नयन नही, जोहते बेसब्री से उसकी बाट!

कपड़े भी झट सूखते,नही लगती इतनी देर दिन सात!

पर शायद!ऐसा सपना कभी नही हो सकता है पूरा!

विज्ञान का,प्रकृतीरहस्य में हस्तक्षेप होगा बहुत बड़ा!

आज धूप छुु़ड़वाता काम,तब होती है मुुन्ना-मुन्नी की मालिश !

बच्चों को भी करनी होती सोच विचार कर बहुुत साजिश !

तब जाकर बाहर खेलने की,उनकी पूरी होती ख्वाहिश !

अम्मा भी तब कहतीं”सूूर्य ही देगा विटामिन डी पौलिश!

यहीं हमारे कपड़े धुलेंगे,तह होंगें सब और सब सूखेंगे!

आज हम सब पिकनिक भी मिलकर धूप में ही मनायेंगे!”

मूूंह ताकते रह गये बच्चे ,जैसे किया किसी ने बड़ा जादू!

चूल्हा हो गया बंद,दादी ने खिलाया गुड़ घी साथ सत्तू!

मस्त मग्न थे बच्चे सारे,जैैसे हो रही कोई बात निराली,

ऊन-कांटा लेकर तभीआ जातीं,अम्मा की सारी सहेली!

बैठ गई चटाई पर सब, खोलती पुराने गप्प की अटैची!

जुट जाती पड़ोसी भीड़ पलभर में,आती मामी,मौसी चाची!

स्वेटर-शाल उतरते सबके,जाड़े की धूप सबको ही भाई।

सर्दी ने जरा सा दिया राहत,तभी बड़ी सी काली बदली आई!

हवा हुई तेज ,बढ़ती ठंड में झूम झूम कमर ठुमकाई !

गरजाअंबर,”अब चलो अंदर,तुुमने छुट्टी बहुत मनाई!”

हड़कंप मची,सब लगे बटोरने अपना बिखरा सामान।

मिट्ठू!बिट्टू!काजू!”पुकारती भागी दीदी छोड़ मैदान!

(स्वरचित एवं मौलिक रचना)

शमा सिन्हा

ताः 12-1-24

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