मन परिंदा बन

देख कर उनका चहकना,झूम हूं उठती !

लगता है जैसे पैरों में उनके पायल है बंधी !

गूंजती है कानों में ऐसी चंचल नई सी धुन।

जैसे पके मीठे दानों की माला रहा कोई बुन!

झाड़ियों में कूद कूद कर हलचल हैं मचाती

जाने कितनी बातें सखियों को हैं बताती!

फिर जैसे जैसे सूर्य लगता अवसान में डूबने,

अपने घोसलों को लगती ये सब भी खोजने!

पत्ते भी साथ ही इनके स्थिर खामोश हो जाते।

क्षितिज की लाली के साथ जब फिर सब उड़ते

मेरा मन परिंदा बन, इनके साथ ही उड़ जाता!

4-2-24

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