पलट कर देखती हूं कभी जब भी तुझे
तो देती मैं घबड़ा कर सोचना छोड़
दिमाग के पट बन्द करना हूं चाहती
सोच से परे तू भयावह है दीखती
अचरज है कैसे तेरे रास्ते मैं गुजरी!
कितने पाप किए थे,कितनी गलतियां?
पूूछती , क्याऔर कुछ है अब भी बाकी?
हिम्मत का क्या यही लिखा होता है हश्र?
क्योंकि सब्र का नतीजा होता इतना वक्र ?
हां,अपने कर्मो क बोझ तो उठाना होगा
और उनके साथ इन सांसों को ढोना होगा
हां इतना ही सुकून कोई रोग नही व्यापा!
मैं दवा नही खाती,शरीर काम कर रहा!
किन्तु वक्त के खिलाफ बहुत बोझ भरा!
अफसोस, सबकुछ रहते,अपनी नही द्योड़ी!
अनमोल तू मेरी तकदीर बदल गई कौड़ी!
दूं क्या जवाब उन्हे जब कोई मुझे ललकारे?
अब और नही गलतियां मुझे है करना
अपमान नही अब और मुझे समेटना
पर कुछ नही होता हाथों में अपने
अदृश्य हैं कर्म दिया यह सब जिसने!
सुना कर दिल हल्का कर लूं,चाहती
जीने वालों का हौंसला ना टूटे,हूं डरती!
इज्जत की रोटी महंगी हुई, है दीखती!
खोजती अब एक ठौर छोटा सा अपना
जहां ना हो किसी एहसान का बोझ कोई
सबसे अलग, एक बस उसका नाम हो
तन मन में गूंजे,जिह्वा रटती रहे प्रतिपल !
हरि कृपा से मिल जाये,बस वह मनोबल!
7-2-24