जाने क्यों पुनः घूम कर आ जाती है समस्या
पूर्णिमा के बाद जैसे आती है अमावस्या!
लगता है एक क्रम में सजा हैं सारा विधान
जिसमें निश्चित है उतार चढ़ाव का परिमाण।
जहां एक खत्म होता है वही से होता प्रारंभ,
नाचता है जीवन सदा लिए हुए अपना दंभ!
पाकर सुख कैसे संघर्ष की यादें ढक जाती हैं
वहीं से अंजान नई कहानी शुरू हो जाती है!
इस तमाशे का चक्र आजीवन चलता रहता है
नये से परिचित कराकर, पहला चला जाता है!
“सब सुलझ जायेगा!” उम्मीद दिन बीतते हैं!
तमाशबीन बने हम तस्वीर बदलते देखते रहते हैं!
पता ही नही चलता कब मां की गोद से उतर गए,
अभी तो हमारा बचपन था ,अभी हम बूढ़े हो गए !
समस्या की दौड़ में कितने मील के पत्थर निकले
समाधान की खोज में सुकून को भी ना पहचान सके!
11-3-24