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“प्रभु, सुन लो बिनति!”
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बना दिया है अपना अंश मुझे,
दिया वह सब अभिलाषित गुण,
फिर क्यों नहीं सम्भव वह सब ,
जो चाहता प्रति पल मन अब?

सशक्त शरीर क्षीणकाय रहा बन,
स्मृतिह्रास अब हो रहा क्षण क्षण,
आस सुहास समेटती दुर्बलता कण,
मूक दृष्टा बन, निहार रही मैं सब।

रुदन से ही होता है यह कथा प्रारंभन
नवजीवन पर्व बनता,शिशु का मंगल क्रदंन
हर्षित मात पिता,होता है गुंजित कुल -कुंजन
अवतरित मानव बनता,पूर्ण परमात्म स्पंदन!

श्री सशक्त रहे अब भी,सत-आत्माऔर तन,
निर्मल सहज रहे,पुरस्कृत यह यात्रा जीवन,
मालिक, रख लो बस इतना सा मेरा मन ,
प्रार्थना स्वीकारो ,अरज रहा यही कण कण!

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