सोचती थी ,कभी जब सब स्थिर होगा
फुरसत के छन में बैठूंगी,बाते करूंगी।
मन को राहत मिलेगी,शब्दो को आयाम,
समय को गिनना भूल ,दोनो करेंगें आराम।
इंतेज़ार में वो लम्हे अनगिनत निकल गए,
उम्मीद में, साथ वो भी पल छिन गिनते रहे,
बेसब्र मोहलते, रहे हम इर्द गिर्द तलाशते,
नई दिशा, नए ख़्वाब रहे हम दोनों बुनते।
रोशनी में तब ही, अजीब बिजली चमकी;
देखते देखते गिर गई ईंटे घर के दीवार की;
टूट गए वो सारे सपने ,बिखर गई हर कड़ी;
बटोरते रहे मलवे में हम,यादें इंतेज़ार की।