अजीब है मन,नित् नया रूप बसता इसके कणकण!
उमंग, हौसला ,हार-जीत,खुशी-ग़म का मिश्रण है मन।
अपनी ही अटखेलियों में, उलझा रहता है इसका तन,
कभी आप ही हँसता है, तो कभी रुठ जाता है,यह मन।
सुबह की सुर्ख किरणे, गुदगुदा देती है मीठे से जब तन,
जाने क्या सोच, शाहंशाह बन अंगड़ाई लेलेता है मन।
और कभी वही उजाला ,रास इसे नही आती है जब,
मुँह पर चादर ओढ़, बन्द आँख करलेता है मनचला मन।
बड़ा उच्च्श्रृंकल, बड़ा मनमानी है, ये सिरफिरा मन,
हर बात की जिद पर अड़ कर खड़ा हो जाता है ये मन।
मनाओ चाहे जितना ,चाल उतनी ही टेढ़ी चलता मन,
ईच्छा से परे,अपनी हर बात मनाना चाहता है ये मन।
छोटी सी बात पर कभी नाचने लगता है, मासूम बन,
और कभी बिन बात के आँसूओ में डूब जाता है ये मन।
बड़ी बड़ी ख़ुशियों से कभी हट जाता है, बैरागी बन
कभी इंतेज़ार में ख्वाबों के अंधेरों को चीरता है मन।
ये चाहता नही समझना,कितना नाज़ुक है कोइ छन,
उसे तो भाता है बस एक अपनी ही मर्जी का मन!
बडा कठिन है जानना,क्या चाहता है हमारा ये मन,
हर पल नई डगर चलना चाहता है ये मतवाला मन।
ज़रा से अनदेखी हुई,डूब जाता है भँवर में, हमारा प्रण,
किसी और को नही, लाचार बनाता हमें,ये हमारा ही मन!
शाम सिन्हा
01.08.19